द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌ ।। 36 ।।

 

 

व्याख्या :-  छल करने वालों में मैं द्युत अर्थात् जुआ हूँ और तेजस्वियों में मैं तेज हूँ । विजेताओं में मैं विजय हूँ, निश्चय करने वालों का मैं निश्चय हूँ और सत्त्वशीलों में मैं सत्त्व गुण वाला हूँ ।

 

 

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।। 37 ।।

 

 

व्याख्या :-  वृष्णियों अर्थात् वृष्णि वंशियों में मैं वासुदेव कृष्ण हूँ, पाण्डवों में मैं अर्जुन हूँ, मुनियों में मैं वेदव्यास हूँ और कवियों में मैं शुक्राचार्य हूँ ।

 

 

विशेष :-  वृष्णियों में सबसे श्रेष्ठ कृष्ण, पाण्डवों में सबसे श्रेष्ठ अर्जुन, मुनियों में सबसे श्रेष्ठ वेदव्यास व कवियों में सबसे श्रेष्ठ शुक्राचार्य को ही माना जाता है ।

 

 

 

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌ ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌ ।। 38 ।।

 

 

व्याख्या :-  दमन करने वालों में मैं दण्ड अर्थात् सजा देने वाला हूँ, विजय प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों की नीति मैं ही हूँ, गूढ़ रहस्यों को गोपनीय रखने में मौन भी मैं ही हूँ और ज्ञानी जनों का ज्ञान भी मैं ही हूँ ।

 

 

विशेष :-  किसी का भी दमन करने के लिए हमें शक्तिरूपी दण्ड की आवश्यकता होती है । विजय प्राप्त करने के लिए हमें एक अच्छी नीति की आवश्यकता होती है । किसी भी रहस्य को छुपाने के लिए सबसे उत्तम साधन मौन होता है और ज्ञानी जनों का आभूषण उनका ज्ञान ही होता है ।

 

 

 

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ।। 39 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  हे अर्जुन ! जगत् में व्याप्त सभी प्राणियों की उत्पत्ति का आधार मैं ही हूँ । इस पूरे ब्रह्माण्ड में एक भी ऐसा कोई प्राणी नहीं है, जिसका मेरे बिना कोई अस्तित्व हो । अतः सबका आधार अथवा मूल मैं ही हूँ ।

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