सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ।। 32 ।।
व्याख्या :- हे अर्जुन ! इस पूरी सृष्टि का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ, सभी विद्याओं में मैं अध्यात्म विद्या हूँ और सभी प्रवादों में वाद भी मैं ही हूँ ।
विशेष :- सृष्टि के आदि का अर्थ सृष्टि की उत्पत्ति होता है ।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।। 33 ।।
व्याख्या :- सभी अक्षरों में मैं अकार हूँ और सभी समासों में मैं द्वन्द्व नामक समास हूँ । उत्पत्ति व अन्त रहित अक्षय काल भी मैं ही हूँ और सबको धारण करने वाला सर्वतोमुखी भी मैं ही हूँ ।
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ।। 34 ।।
व्याख्या :- सबको नष्ट करने वाली मृत्यु भी मैं ही हूँ और सबको उत्पन्न करने वाला कर्म भी मैं ही हूँ । सभी नारियों अथवा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, मेधा अथवा बुद्धि, धृति और क्षमा आदि विशेषताएँ मैं ही हूँ ।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ।। 35 ।।
व्याख्या :- सभी गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम भी मैं ही हूँ और छन्दों में गायत्री भी मैं ही हूँ । महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ और ऋतुओं में मैं वसन्त ऋतु हूँ ।