तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।। 11 ।।
व्याख्या :- मैं उन योगयुक्त ज्ञानी भक्तों पर विशेष कृपा करने के उद्देश्य से उनके अंतःकरण में प्रवेश करके ज्ञान की रोशनी द्वारा उनके अन्दर अज्ञान से उत्पन्न अंधकार को नष्ट कर देता हूँ ।
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। 12 ।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। 13 ।।
व्याख्या :- अर्जुन कहता है- हे भगवान् ! आप ही परम ब्रह्म, परम धाम, और सबसे पवित्र हो, आपको सभी पुरूष सनातन, दिव्य, देवों के आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापक मानते हैं तथा-
उसी प्रकार ऋषि नारद, असित, देवल, तथा व्यास आदि सभी ऋषिगण व आप स्वयं भी यही कहते हैं ।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ।। 14 ।।
व्याख्या :- हे केशव ! आप जो कुछ भी मुझे कहते हो, उसे मैं सत्य मानता हूँ, हे भगवन् ! आपके व्यक्तित्व को न तो देवता जान पाए हैं और न ही दानव ।