दसवां अध्याय ( विभूतियोग )

जिस प्रकार अध्याय के नाम से ही विदित होता है कि इसमें भगवान की विभूतियों का वर्णन किया गया है ।

इसमें कुल बयालीस ( 42 ) श्लोक कहे गए हैं । जब अर्जुन प्रश्न करता है कि हे जनार्दन ! आप उन सभी विभूतियों का विस्तार से वर्णन करो ताकि मैं उनको सुनकर तृप्त हो सकूँ । इसके उत्तर में श्रीकृष्ण विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! अब मैं तुम्हारे सामने अपनी विभूतियों का विस्तार से वर्णन करता हूँ ।

पूरे ध्यान से इनको सुनो । सभी प्राणियों में निवास करने वाला आत्मा मैं ही हूँ, बारह आदित्यों में मैं विष्णु हूँ, तेजस्वियों में मैं सूर्य हूँ, उन्नचास मरुतों मे मैं मरीचि हूँ, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ग्यारह रुद्रों में मैं शंकर हूँ, यक्षों व राक्षसों में मैं कुबेर हूँ, आठ वासुओं में मैं अग्नि हूँ, पर्वतों में मैं मेरु पर्वत हूँ, पुरोहितों में मैं बृहस्पति हूँ, सेनानायकों में मैं स्कन्द हूँ, जलाशयों में मैं समुद्र हूँ, सभी ऋषियों में मैं भृगु हूँ, वाणी में मैं ओंकार हूँ, पदार्थों में मैं हिमालय हूँ, वृक्षों में मैं पीपल हूँ, देव ऋषियों में मैं नारद हूँ, गन्धर्वों में मैं चित्ररथ हूँ, मुनियों में मैं कपिल हूँ, मनुष्यों में मैं राजा हूँ, अस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गायों में कामधेनु हूँ, नागों में मैं शेषनाग हूँ, शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ, मछलियों में मैं मगरमच्छ हूँ, जल स्त्रोतों में मैं गंगा हूँ, नारियों में मैं कीर्ति, श्री वाणी,स्मृति, मेधा, धृति व क्षमा हूँ, महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ,  ऋतुओं में मैं वसन्त हूँ, वृण्णि वंशियों में मैं वासुदेव व पाण्डवों में अर्जुन हूँ, मुनियों में व्यास व कवियों में शुक्राचार्य हूँ, सभी ज्ञानियों के ज्ञान में मैं हूँ । इस प्रकार मेरी विभूतियों का कोई अन्त नहीं है । सार रूप में यह सम्पूर्ण जगत को मैं धारण किये हुए हूँ ।

 

 

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ।। 1 ।।

 

 

व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम रहस्य वाले वचनों को फिर से सुनो, जिनमें मैं तुम्हारे हित की बात ही कहूँगा

 

 

 

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ।। 2 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  मेरी उत्पत्ति के रहस्य को न तो देवता जानते हैं और न ही महर्षि, क्योंकि उन सभी देवताओं और महर्षियों का आदि कारण भी मैं ही हूँ अर्थात् सभी देवता और महर्षि भी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं ।

 

 

 

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। 3 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो मनुष्य मेरे अजन्मा, अनादि व महेश्वर वाले स्वरूप को भली – भाँति जानता है, सभी मनुष्यों में ज्ञानवान वह व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में ईश्वर के तीन विशेष गुणों का वर्णन किया गया है-

 

अजन्मा :- जो कभी जन्म नहीं लेता

अनादि :-  जिससे पहले कोई न हुआ हो अर्थात् सबसे प्रथम

महेश्वर :- ईश्वर का महान स्वरूप ।

 

ईश्वर के इन तीन गुणों को जानने वाला ज्ञानी व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है ।

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