पित्त के असन्तुलन से होने वाले रोग

 

उन्मार्गं प्रस्थितो वायु: पित्तकोष्ठे यदा स्थित: ।

हृच्छूलं पार्श्वशूलं च पृष्ठशूलं च जायते ।। 7 ।।

 

भावार्थ :- जब प्राणवायु अपने मार्ग से हटकर पित्त प्रकोष्ठ में चली जाती है । तब हमारे हृदय प्रदेश, हृदय के साथ वाले हिस्से में व पीठ ( कमर ) में पीड़ा ( दर्द ) का अनुभव होता है ।

 

 

पित्त से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा

 

तैलाभ्यङ्गं तदा पथ्यं स्नान चोष्णेन वारिणा ।

सघृतं पायसं भुक्त्वा जीर्णेऽन्ने योगमभ्यसेत् ।। 8 ।।

 

भावार्थ :- जिस भी साधक का पित्त असन्तुलित हो गया है । तब उसे तेल की मालिश व गरम पानी से स्नान करना लाभदायक होता है । साथ ही उसे घी व खीर जैसे शीघ्र पचने वाले खाद्य पदार्थ का सेवन करना चाहिए और उनके पचने ( हजम ) पर योग का अभ्यास करना चाहिए ।

 

 

यस्मिन् यस्मिन् यदा देशे रुजा बाधा प्रजायते ।

तस्मिन् देशे स्थितं वायुं मनसा परिचिन्तयेत् ।। 9 ।।

 

भावार्थ :- शरीर के जिस भी हिस्से में वायु के रुकने के कारण पीड़ा ( दर्द ) हो रही है । तब वहीं अर्थात् उसी स्थान पर स्थित प्राणवायु का मन द्वारा चिन्तन करना चाहिए ।

 

एकचित्तेन तद् ध्यात्वा पूरयेत् पूरकेण तु ।

नि:शेषरेचकं कुर्यात् यथाशक्तया प्रयत्नतः ।। 10 ।।

 

भावार्थ :- अपने चित्त को दर्द वाले स्थान पर एकाग्र करते हुए पहले वायु को अन्दर भरें ( फेफड़ों में ) । इसके बाद अपने सामर्थ्य ( ताकत ) के अनुसार उस प्राणवायु को बाहर निकाल दें ।

 

विशेष :- इस श्लोक में वायु को पूरक ( अन्दर ) व रेचक ( बाहर ) करने की बात कही गई है ।

 

 

बहुधा रेचकं कृत्वा पूरयित्वा पुनः पुनः ।

कर्षयेत् प्राक्स्थितं वायुं कर्णतोयमिवाम्बुना ।। 11 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार नहाते हुए जब गलती से कान में पानी चला जाता है तो उसे निकालने के लिए हम उसी कान में थोड़ा सा पानी और डाल लेते हैं । जिससे पहले गलती से गया हुआ पानी भी इस पानी के साथ वापिस आ जाता है । ठीक इसी प्रकार जो प्राणवायु गलती से गलत मार्ग में जाकर रुक गयी है । उस वायु को बाहर निकालने के लिए साधक को बार- बार श्वास को अन्दर व बाहर करना चाहिए । ताकि इसके साथ वह रुका हुआ वायु बाहर निकल सके ।

 

विशेष :- इस श्लोक में बताया गया नुस्खा अत्यन्त उपयोगी होता है । मैंने स्वयं इसका प्रयोग बहुत बार किया है । बचपन में नहर व तालाब में नहाते हुए अनेक बार मेरे कान में पानी चला जाता था । जिससे सुनने में कठिनाई होती थी और सिर में भारीपन हो जाता था । लेकिन एक दिन गाँव की ही नहर में नहाते हुए मेरे दोस्त मनोज के भी कान में पानी चला गया । उसने तुरन्त अपने हाथ की अंजलि में पानी लेकर अपने उसी कान में डाल लिया । जब मैंने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि जब भी कान में पानी चला जाये तो ऐसा ही करना चाहिए । जिससे पहले गलती से गया हुआ पानी बाहर निकल जाता है । इसके बाद उसने अपने कान को नीचे की ओर झुकाया और पानी झट से निकल गया । इसके लिए व्यक्ति को पूरी विधि का प्रयोग करना पड़ेगा । अन्यथा कान से पानी बाहर नहीं निकलेगा । इसके लिए जिस कान में पानी गया है उसी कान में और पानी डालकर उस कान को नीचे की ओर झुकाना चाहिए । ताकि पानी आसानी से बाहर निकल जाए । ठीक इसी फार्मूले ( विधि ) का प्रयोग हमें शरीर के अन्दर रुकी हुई वायु को बाहर निकालने के लिए करना चाहिए ।

 

 

प्रायः स्निग्धमाहरं च इह भुञ्जीत योगवित् ।

एवं शूलादयो रोगा: शाम्यन्ति वातपित्तजा: ।। 12 ।।

 

भावार्थ :- योगी साधक को इस अवस्था में अपने भोजन में स्निग्ध अर्थात् दूध से बने चिकने पदार्थों का ही प्रयोग करना चाहिए । इस प्रकार का आहार ग्रहण करने से साधक के सभी वात और पित्त से सम्बंधित रोग दूर हो जाते हैं ।

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