चौथा अध्याय ( प्रत्याहार वर्णन )

 

चौथे अध्याय में महर्षि घेरण्ड ने प्रत्याहार का वर्णन किया है । प्रत्याहार को इन्होंने योग के चौथे अंग के रूप में माना है । प्रत्याहार के पालन से साधक को धैर्य की प्राप्ति होती है अर्थात् धैर्य को प्रत्याहार का फल बताया गया है ।

 

 

अथात: सम्प्रवक्ष्यामि प्रत्याहारकमुत्तमम् ।

यस्य विज्ञानमात्रेण कामादिरिपुनाशनम् ।। 1 ।।

 

भावार्थ :-  इसके बाद ( मुद्राओं के बाद ) अब मैं प्रत्याहार के विषय में कहता हूँ । जिसके ज्ञान को जानने मात्र से ही ( केवल जानने से ही ) काम वासना आदि शत्रु नष्ट हो जाते हैं।

 

 

विशेष :-  प्रत्याहार से काम वासना से सम्बंधित सभी विकार नष्ट हो जाते हैं ।

 

 

यतो यतो मनश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 2 ।।

 

भावार्थ :- मन की चंचल प्रवृत्ति होने के कारण यह कहीं- कहीं घूमता रहता है । अतः यह चंचल मन जहाँ- जहाँ भी जाता है । उसे वहीं से रोककर सदा अपने वश में अर्थात् अपने नियंत्रण में रखना चाहिए ।

 

 

पुरस्कारं तिरस्कारं सुश्राव्यं भावमायकम् ।

मनस्तस्मान्नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 3 ।।

 

भावार्थ :-  सम्मान हो या अपमान, कानों के लिए प्रशंसा ( अच्छा ) हो या निन्दा ( बुरा ), इन सभी से मन को हटाकर अपने नियंत्रण में रखना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  सम्मान व अपमान और प्रशंसा व निन्दा दोनों ही अवस्थाओं में अपने को समान रखते हुए अपने मन को नियंत्रित करना चाहिए । इस श्लोक में कर्ण अर्थात् कान नामक इन्द्री के विषय को बताया गया है ।

 

 

सुगन्धो वापि दुर्गन्धो घ्राणेषु जायते मन: ।

तस्मात् प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 4 ।।

 

भावार्थ :- सुगन्ध हो या दुर्गन्ध नासिका द्वारा दोनों को ही ग्रहण किया जाता है । सुगन्ध व दुर्गन्ध दोनों में ही मन स्वयं ही चला जाता है । अतः मन को वहाँ से हटाकर अपने नियंत्रण में रखना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में नासिका नामक इन्द्री के विषय को बताया गया है ।

 

 

मधुराम्लकतिक्तादिरसं गतं यदा मन: ।

तस्मात् प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 5 ।।

 

भावार्थ :-  जब हमारा मन मीठे, खट्टे, तीखे आदि रसों में जाता है । तब उसे वहाँ से भी हटाकर अपने नियंत्रण में रखना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में जिह्वा ( जीभ )  नामक इन्द्री के विषय को बताया गया है ।

 

 

प्रत्याहार के इस पूरे अध्याय में मन को अपने नियंत्रण में रखने की ही बात कही गई है । यह घेरण्ड संहिता का सबसे छोटा अध्याय है । जिसमें कुल पाँच ही श्लोक हैं ।

प्रत्याहार में मन को अपनी इन्द्रियों से विमुख करने का ही उपदेश दिया जाता है । यहाँ पर एक विशेष बात यह है कि इसमें केवल तीन इन्द्रियों ( कान, नाक व जीभ ) के ही विषयों से मन को हटाकर अपने नियंत्रण में रखने का उपदेश दिया गया है । जबकि कुल ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच होती हैं । यहाँ पर त्वचा व आँख के विषय में चर्चा नहीं की गई है । यह विद्वानों के लिए चर्चा का विषय है । परीक्षा की दृष्टि से भी इस प्रकार का प्रश्न पूछा जा सकता है कि प्रत्याहार के प्रकरण में किन – किन ज्ञानेंद्रियों की चर्चा की गई है ? उत्तर है कान, नासिका व जीभ । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि किस- किस ज्ञानेंद्रियों के विषयों की चर्चा नहीं की गई है ? उत्तर है त्वचा व आँख ।

 

 

।। इति चतुर्थोपदेश: समाप्त: ।।

 

इसी के साथ घेरण्ड संहिता का चौथा  अध्याय ( प्रत्याहार वर्णन ) समाप्त हुआ ।

 

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

  1. बहुत ही सुन्दर वर्णन प्रत्याहार का आपने वर्णन किया है सर।
    ????

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}