श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ।। 52 ।।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ।। 53 ।।
व्याख्या :- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – तुमने जो मेरे इस अति दुर्लभ स्वरूप को देखा है, देवता भी सदा मेरे इस स्वरूप को देखने की आकांक्षा ( इच्छा ) रखते हैं ।
तुमने मेरे जिस स्वरूप को देखा है उस स्वरूप को वेदों, तप, दान और यज्ञ आदि विधियों से भी नहीं देखा जा सकता ।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।। 54 ।।
व्याख्या :- हे परन्तप अर्जुन ! मेरे इस स्वरूप को अनन्य भक्तिभाव द्वारा सरलता से यथार्थ रूप में अथवा तत्त्व रूप में जाना, देखा व प्राप्त किया जा सकता है ।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।। 55 ।।
व्याख्या :- हे पाण्डुपुत्र अर्जुन ! जो भक्त आसक्ति रहित होकर, अपने सभी कर्तव्य कर्मों को मुझमें अर्पित करके, मेरी भक्ति करता है और जो किसी भी प्राणी के साथ वैरभाव नहीं रखता, वह भक्त मुझे प्राप्त कर लेता है ।
Best sir
thank you sir????????
Nice guru ji
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बहुत ही अच्छी व्याख्या गुरुदेव!
आपको हृदय से आभार प्रेषित करता हूं।