श्रीभगवानुवाच
विराट स्वरूप का दर्शन
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।। 5 ।।
व्याख्या :- श्रीकृष्ण कहते हैं- हे पार्थ ! अब तुम मेरे सैकड़ो, हजारों अलग- अलग प्रकार के व अलग- अलग रंगों और आकृति वाले दिव्य रूपों को देखो ।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ।। 6 ।।
व्याख्या :- हे भरतवंशी अर्जुन ! अब तुम मुझमें बारह आदित्यों को, आठ वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को, दो अश्वनीकुमारों को और उनन्चास मरुद्गणों को तथा मेरे उन आश्चर्य चकित करने वाले अन्य रूपों को भी देखो, जिनको तुमने पहले कभी नहीं देखा है ।
विशेष :- इन सभी आदित्यों, वसुओं, रुद्रों व मरुद्गणों का वर्णन इससे पहले वाले अध्याय में किया जा चुका है । यह सभी परीक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं ।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ।। 7 ।।
व्याख्या :- हे गुडाकेश अर्जुन ! आज तुम एक ही जगह पर ( मेरे इस शरीर में ) सम्पूर्ण जगत् के चराचर ( जड़ व चेतन ) स्वरूप को देख लो, इसके अलावा तुम मेरे इस शरीर में वह सब भी देख लो, जिसे देखने की तुम्हारी इच्छा है ।
दिव्य दृष्टि
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ।। 8 ।।
व्याख्या :- लेकिन हे अर्जुन ! तुम अपनी इन सामान्य आँखों से मुझे नहीं देख पाओगे, इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूँ, उस दिव्य दृष्टि से तुम मेरे इस योगमय ईश्वरीय स्वरूप को देखो ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ।। 9 ।।
व्याख्या :- अब संजय ने राजा धृतराष्ट्र से कहा – हे राजन् धृतराष्ट्र ! इस प्रकार महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने परम श्रेष्ठ दिव्य स्वरूप के दर्शन करवाये ।
Best explain sir ????????
Nice guru ji.
Prnam Aacharya ji. Dhanyavad