मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्‍ममेदम्‌ ।
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।। 49 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  मेरे इस अत्यन्त विकराल स्वरूप को देखकर न तो तुम्हें व्याकुलता होनी चाहिए और न ही मूढ़ता, तुम भय से मुक्त होकर प्रसन्न मन के साथ पुनः ( दोबारा ) मेरे उसी शान्त स्वरूप को फिर से देखो ।

 

 

 

संजय उवाच


इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।। 50 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  अब संजय राजा धृतराष्ट्र को कहता है- हे राजन् ! इस प्रकार कहकर वासुदेव श्रीकृष्ण ने अर्जुन को फिर से अपना पहले वाला शान्त स्वरूप दिखाकर, डरे – सहमे अर्जुन को महात्मा श्रीकृष्ण ने धैर्य बंधाया ।

 

 

 

अर्जुन उवाच


दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ।। 51 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  अर्जुन कहता है – हे जनार्दन ! ( कृष्ण ) आपके इस सौम्य और मनुष्य शरीर को देखकर अब मेरी चेतना लौट आई है, जिससे मैं अपनी पहले वाली प्राकृतिक अथवा स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ ।

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  1. ॐ गुरुदेव!
    अति उत्तम व्याख्या।
    आपको हृदय से आभार।

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