कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।। 37 ।।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ।। 38 ।।
व्याख्या :- हे महात्मन् ! आप ही ब्रह्मा के आदिकारण ( उत्पत्ति का मूल ) व सबसे महान हैं फिर क्यों न वह सिद्ध गण आपको नमस्कार करेंगे ? क्योंकि हे अनन्त ! ( जिसका कभी अन्त नहीं होता ) हे देवेश ! ( देवों के देव ) हे जगन्निवास ! ( सम्पूर्ण जगत् को निवास करवाने वाला ) आप ही सत् हैं आप ही असत् हैं और इन दोनों से भी परे जो अक्षर तत्त्व अर्थात् अविनाशी ब्रह्मा है, वह भी आप ही हैं ।
आप ही देवों के देव आदिदेव हैं, आप ही पुरातन पुरुष हैं, आप ही इस सम्पूर्ण जगत् के परम आधार हो, आप ही ज्ञाता हो ( सबकुछ जानने वाला ) और आप ही ज्ञेय हो ( जानने योग्य ) तथा आप ही परमधाम हैं अर्थात् आपका स्थान ही श्रेष्ठ है । हे अनन्तरूप ! यह सम्पूर्ण जगत् आपसे ही व्याप्त है अर्थात् आपने ही इस सम्पूर्ण जगत् का विस्तार किया है ।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।। 39 ।।
व्याख्या :- आप ही वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्र, समस्त प्रजा के पति अर्थात् ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हो । आपको हजारों बार नमस्कार करते हुए बार- बार आपको नमन करता हूँ ।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ।। 40 ।।
व्याख्या :- हे सर्वव्यापी ! आपको आगे से नमस्कार, पीछे से नमस्कार और आपको सभी दिशाओं से नमस्कार है । आप अनन्त सामर्थ्य व पराक्रम से युक्त हैं । आपने सम्पूर्ण जगत् का समावेश अपने भीतर किया हुआ है, इस प्रकार आप ही सर्व रूप परमात्मा हो ।
Prnam Aacharya ji . Sunder shlok . Dhanyavad
Best explain sir????????
Nice guru ji