श्रीभगवानुवाच


कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ।। 32 ।।

 

 

व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – मैं यहाँ पर सभी लोकों को नष्ट करने के लिए विकराल रूप धारण किया हुआ महाकाल हूँ, जो सभी लोकों का संहार करने के लिए ही प्रवृत्त हुआ हूँ । यदि तुम इस युद्ध में न भी होते तो भी प्रतिपक्ष की सेना में उपस्थित सभी योद्धा मृत्यु को ही प्राप्त होते अर्थात् इन सब योद्धाओं की मृत्यु निश्चित थी ।

 

 

 

तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्‍क्ष्व राज्यं समृद्धम्‌ ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‌ ।। 33 ।।

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्‌ ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्‌ ।। 34 ।।

 

 

 

 

व्याख्या :-  अतः तुम उठो और यश प्राप्त करके, इन सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके उन्नत अथवा समृद्ध राज्य का उपभोग करो । यह सभी योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुकें हैं, इसलिए हे सव्यसाची अर्जुन ! तुम केवल निमित्त मात्र बनकर युद्ध करो ।

 

द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी वीर योद्धा जो मेरे द्वारा मारे जा चुकें हैं, तुम उन सबको बिना किसी भय के मारो । जीत निश्चित रूप से तुम्हारी ही होगी, इसलिए तुम युद्ध करो ।

 

 

 

संजय उवाच


एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ।। 35 ।।

 

अर्जुन उवाच


स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्‍घा: ।। 36 ।।

 

 

व्याख्या :-  संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं- हे राजन् धृतराष्ट्र ! भगवान श्रीकृष्ण के इस पूरे उपदेश को सुनने के बाद मुकुटधारी अर्जुन ने काँपते हुए हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण को नमस्कार करते हुए नम्रतापूर्वक कहा –

 

हे हृषिकेश ! ( कृष्ण ) यह बिल्कुल सही है कि सम्पूर्ण जगत् आपके गुणों का कीर्तन करते हुए प्रसन्न हो रहा है और साथ ही आपमें अपनी आस्था रखते हुए आपसे लगाव भी रखता है । इसके विपरीत सभी राक्षस आपसे भयभीत होकर दसों दिशाओं में भाग रहे हैं और सिद्ध गणों के सभी समूह आपको नमस्कार करते हैं ।

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