समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च ।। 2 ।।

 

शब्दार्थ :- समाधिभावनार्थ:, ( वह क्रियायोग समाधि को सिद्ध करने वाला ) च, ( व ) क्लेशतनूकरणार्थ:, ( अविद्या आदि कलेशों को कमजोर करने वाला होता है । )

 

सूत्रार्थ :- वह अर्थात क्रियायोग साधक को समाधि की प्राप्ति व उसके अविद्या आदि कलेशों को कमजोर या असहाय करने वाला होता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में क्रियायोग के फल का प्रतिपादन ( वर्णन ) किया गया है । जब कोई साधक तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान का पालन करता है तो उसे समाधि की प्राप्ति होती है । और उसके सभी अविद्या आदि पंच क्लेश पूरी तरह से निर्बल ( बिना बल के अर्थात न के बराबर ) हो जाते हैं ।

यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब तक साधक के अविद्या आदि कलेशों दूर नहीं होंगें तब तक उसे समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए सबसे पहले कलेशों को निर्बल बनना आवश्यक है । जैसे ही साधक के क्लेश कमजोर हो जाएंगे वैसे ही वह विवेकख्याति उन कमजोर या निर्बल हुए कलेशों को दग्ध बीज कर देगी ।

दग्ध बीज के विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए समाधिपाद के अन्तिम सूत्र अर्थात सूत्र संख्या 51 की व्याख्या में वर्णित उदाहरण को देखें ।

इस प्रकार जब साधक के क्लेश निर्बल हो जाते हैं और वह विवेकख्याति के द्वारा उनको दग्ध बीज कर देता है । उस समय साधक की सत्त्व बुद्धि प्रकृति में लीन होने के लिए समर्थ ( योग्य ) हो जाती है ।

अतः क्रियायोग के पालन करने से साधक समाधि की प्राप्ति करने के योग्य हो जाता है । क्रियायोग साधक के सभी कलेशों को दूर करके विवेकख्याति को उत्पन्न करता है । और उस विवेकख्याति के उत्पन्न होने से ही साधक अपने जीवन के परम लक्ष्य अर्थात समाधि को प्राप्त करता है ।

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