षट्कर्म परिचय

षट्कर्म शब्द की उत्पत्ति षट् और कर्म इन दो शब्दों के मेल से हुई है । इनमें षट् का अर्थ है छः (6) और कर्म का अर्थ है कार्य । इस प्रकार षट्कर्म का अर्थ हुआ ‘छः कार्य’। यहाँ पर षट्कर्म का अर्थ ऐसे छः विशेष कर्मों से है जिनके द्वारा शरीर की शुद्धि होती है । हठयोग में इन छः प्रकार के शुद्धि कर्मों को षट्कर्म कहते हैं । इन्हें अंग्रेजी में सिक्स बॉडी क्लींजिंग प्रोसेस कहा जाता है ।
महर्षि घेरण्ड ने छः षट्कर्मों को घेरण्ड संहिता में योग के पहले अंग के रूप में वर्णित किया है । उनका मानना है कि बिना षट्कर्म के अभ्यास के कोई भी साधक योग मार्ग में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । सबसे पहले शरीर की शुद्धि आवश्यक है । बिना शरीर की शुद्धि के योग के अन्य अंगों के पालन में साधक को आगे बढ़ने में कठिनाई होती है । इसलिए महर्षि घेरण्ड ने षट्कर्म को योग के पहले अंग के रूप में स्वीकार किया है ।

षट्कर्म हठयोग साधना का अति विशिष्ट अंग है । षट्कर्मों का अभ्यास करने से केवल शारीरिक शुद्धि ही नहीं बल्कि मानसिक शुद्धि भी होती है । शारीरिक व मानसिक शुद्धि होने से हम आध्यात्मिक मार्ग पर आसानी से आगे बढ़ पाते हैं।

षट्कर्मों की आवश्यकता

षट्कर्मों का हमारे जीवन में विशेष प्रयोजन है । जिनमें एक विशेष प्रयोजन यह भी है कि ये हमें विभिन्न प्रकार के रोगों से भी बचाते हैं । आज पूरा विश्व भयंकर रोगों से बचने व उनके निराकरण के तरीके ढूढ़ने पर अरबों डॉलर खर्च कर रहा है। लेकिन किसी भी रोग या बीमारी का स्थायी समाधान नहीं मिल रहा है । इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण रोग या बीमारी के मूल कारण का समाधान न होना है ।

लगभग सभी चिकित्सा पद्धति रोग या बीमारी के लक्षणों को आधार बनाकर उनका निवारण करने का काम कर रही हैं । परन्तु जब तक कारण का निवारण नहीं किया जाएगा, तब तक किसी भी रोग का स्थायी समाधान नहीं हो सकता ।
इसी का परिणाम है कि आज वर्तमान समय में बहुत सी चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं, बहुत सारे नए अविष्कार हुए हैं, बहुत सारे अस्पताल खुलें हैं । लेकिन रोग या रोगियों की संख्या घटने की बजाय दिन- प्रतिदिन बढ़ती जा रही है ।

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?

इसके दो प्रमुख कारण हैं: एक हमारी असंयमित ( गलत ) दिनचर्या और दूसरा रोग के कारण का निवारण न करना ।
पहले कारण के समाधान हेतु योग में आचार- विचार व आहार- विहार का वर्णन किया गया है । जिसके पालन से असंयमित दिनचर्या वाली समस्या का स्थायी समाधान होता है ।
दूसरे कारण के स्थायी समाधान के लिए हठयोग में षट्कर्म का उपदेश दिया है । वास्तव में देखा जाए तो हमें कोई भी रोग या बीमारी तब होती है जब हमारे शरीर में उस बीमारी के लिए उपयुक्त माहौल ( कारण ) मौजूद होता है ।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति का मानना है कि रोग या बीमारी होने का कारण कीटाणु होते हैं । लेकिन हमारी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों ( आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, योग चिकित्सा ) का मानना है कि रोग या बीमारी का कारण कीटाणु नहीं बल्कि वह विजातीय ( Detox ) तत्त्व हैं जिनकी वजह से कीटाणु पैदा होते हैं । अर्थात हमारी चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल पर काम करती हैं ।
किसी भी प्रकार की बीमारी या रोग की उत्पत्ति कीटाणु की वजह से ही होती है। परन्तु उस कीटाणु के पैदा होने का भी तो कोई कारण होता है । दूसरी चिकित्सा पद्धति केवल कीटाणु को खत्म करने का काम करती हैं ।

और हमारी चिकित्सा पद्धति कीटाणु के पैदा होने वाले कारण को खत्म करती हैं ।और जब कारण ही नहीं रहेगा तो कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी ?
उदाहरण स्वरूप :- मच्छर और मक्खी हमेशा गन्दगी में ही पैदा होते हैं । जहाँ पर जितनी ज्यादा गन्दगी होगी वहाँ पर उतने ही अधिक मच्छर व मक्खी मिलेंगे । और जो जगह बिलकुल साफ – सुथरी होगी वहाँ पर आपको एक भी मच्छर व मक्खी नहीं मिलेगा ।गुड़ के ऊपर मक्खियाँ आती हैं । जैसे ही गुड़ को हटा देते हैं वैसे ही मक्खियाँ भी हट जाती हैं।

इसलिए जब शरीर में विजातीय द्रव्य होते हैं, तो हमें उससे सम्बंधित कोई भी बीमारी या रोग हो जाता है । लेकिन जैसे ही शरीर से विजातीय तत्त्व बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही उस रोग के सभी कीटाणु अपने आप समाप्त हो जाते हैं।
इस प्रकार षट्कर्मों से हमारे शरीर के सभी विजातीय तत्त्व बाहर निकल जाते हैं। और विजातीय तत्त्वों के बाहर निकलने से हमारा शरीर सभी प्रकार के रोगों सेबच जाता है । इस प्रकार षट्कर्म हमारी बीमारी या रोग के मूल कारण को खत्मकरते हैं । जिससे हम सदैव स्वस्थ रहते हैं ।

योग साधना में साधक का स्वस्थ रहना अति महत्त्वपूर्ण है ।
व्याधि ( बीमारी ) को योग मार्ग में बाधक माना जाता है । यदि योग साधना करने वाला साधक बीमार होगा तो वह साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर पाता है ।अतः योग साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए शरीर का व्याधि ( बीमारी )से मुक्त होना आवश्यक है ।इसलिए पहले शरीर को पूरी तरह से रोगों से मुक्त करने के बाद ही अन्य योग साधनाओं का अभ्यास करना चाहिए । पहले अपने आप को योग साधना के लिए उपयुक्त बनाना पड़ता है । जिसके लिए षट्कर्मों का पालन करनाआवश्यक है ।

षट्कर्मों के उद्देश्य

षट्कर्मों के विभिन्न उद्देश्य हैं । जैसे –

1. त्रिदोषों ( वात, पित्त और कफ ) को संतुलित करना ।
2. शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाना ।
3. इड़ा व पिंगला नाड़ी को संतुलित करके प्राण को सुषम्ना में प्रवाहित करना ।
4. शरीर से अनावश्यक मलों का निष्कासन ( शरीर से बाहर निकलना )
करना ।
5. शरीर की आन्तरिक शुद्धि करके शरीर को स्वस्थ रखना ।
6. शरीर के आन्तरिक संस्थानों जैसे – पाचनतंत्र, परिसंचरण तंत्र व श्वसनतंत्र
आदि को मजबूती प्रदान करना ।

सावधानियाँ

षट्कर्मों की हमारे जीवन में बहुत उपयोगिता है । इनके अभ्यास से हमारे सारे शरीर की शुद्धि होती है । अब प्रश्न उठता है कि इनकाअभ्यास कैसे किया जाए ?
कुछ व्यक्तियों का मानना है कि केवल किसी लेख या पुस्तक में पढ़कर भी हम इनका अभ्यास कर सकते हैं । लेकिन ऐसा करना आपके लिए घातक हो सकता है । किसी भी पुस्तक में पढ़कर या किसी वीडियो को देखकर आप इनके विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । कोई भी लेख या व्याख्यान आपको जानकारी देने के लिए तो पर्याप्त होता है । लेकिन बिना योग विशेषज्ञ के षट्कर्मों का व्यवहारिक अभ्यास करना आपको हानि पहुँचा सकता हैं ।

इनके अभ्यास से पूर्व अपने शरीर की क्षमता व प्रवृत्ति आदि का ज्ञान होना अनिवार्य है । षट्कर्मों के अभ्यास से पूर्व साधक को अपने आहार की शुद्धि रखनी चाहिए । साधक को केवल पथ्य आहार ही ग्रहण करना चाहिए । किसी भी प्रकार का तामसिक भोजन नहीं लेना चाहिए । आहार का योग साधना में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । किसी बीमारी या रोग की अवस्था में पहले चिकित्सक से सुझाव लेना आवश्यक है । उसके बाद ही आप षट्कर्मों का अभ्यास करें । षट्कर्मों के अभ्यास की शुरुआत अकेले ही घर पर नहीं करनी चाहिए ।

इसके लिए विधिवत रूप से योग केन्द्र पर जाकर, योग गुरु से ही इनका प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए । यहाँ पर आपको केवल सामान्य सावधानियाँ बताई जा रही हैं । वैसे प्रत्येक षट्कर्म की अलग- अलग सावधानियाँ होती हैं । जिनका हमें विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए । षट्कर्म वर्णन षट्कर्म का वर्णन मुख्य रूप से घेरण्ड संहिता व
हठप्रदीपिका में ही मिलता है ।

पहले हम घेरण्ड संहिता के षट्कर्मों के विषय में जानेंगे ।

महर्षि घेरण्ड के अनुसार षट्कर्म निम्न हैं –

धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिर्लौलिकी त्राटकं तथा ।
कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत् ।। ( घे०स 1/12 )

1. धौति
2. वस्ति
3. नेति
4. लौलिकी / नौलि
5. त्राटक
6. भालभाति / कपालभाति ।

षट्कर्म वर्णन :- 

वैसे तो षट्कर्म मुख्य रूप से छः होते हैं । लेकिन महर्षि घेरण्ड ने उनके अलग – अलग विभाग किये हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है –

1. धौति :-

धौति के मुख्य चार भाग माने गए हैं । और आगे उनके भागों के भी विभाग किये जाने से उनकी कुल संख्या 12 हो जाती है ।

धौति के चार प्रकार :-
1. अन्तर्धौति

2. दन्त धौति
3. हृद्धधौति
4. मूलशोधन ।

1. अन्तर्धौति के प्रकार :-
1. वातसार धौति
2. वारिसार धौति
3. वह्निसार / अग्निसार धौति
4. बहिष्कृत धौति ।

2. दन्तधौति के प्रकार :-
1. दन्तमूल धौति
2. जिह्वाशोधन धौति
3. कर्णरन्ध्र धौति
4. कपालरन्ध्र धौति ।
3. हृद्धधौति के प्रकार :-
1. दण्ड धौति
2. वमन धौति

3. वस्त्र धौति ।
4. मूलशोधन :- मूलशोधन धौति के अन्य कोई भाग नहीं किए गए हैं ।

2. वस्ति :-

वस्ति के दो प्रकार होते हैं –
जल वस्ति
स्थल वस्ति ।

3. नेति :-

नेति क्रिया के दो भाग किये गए हैं –
1. जलनेति
2. सूत्रनेति ।

4. लौलिकी :-

लौलिकी अर्थात नौलि क्रिया के तीन भाग माने जाते हैं –
1. मध्य नौलि
2. वाम नौलि
3. दक्षिण नौलि ।

5. त्राटक :-

त्राटक के अन्य विभाग नहीं किये गए हैं । वैसे इसके तीन भाग होते
हैं लेकिन वह अन्यो के द्वारा कहे गए हैं ।

6. भालभाति / कपालभाति :-

कपालभाति के तीन भाग होते हैं –

1. वातक्रम कपालभाति
2. व्युत्क्रम कपालभाति
3. शीतक्रम कपालभाति ।

स्वामी स्वात्माराम ( हठप्रदीपिका ) के अनुसार षट्कर्म :-

स्वामी स्वात्माराम ने हठप्रदीपिका में षट्कर्म का वर्णन करते हुए कहा है कि जिन साधको के शरीर में चर्बी ( मोटापा ) और कफ अधिक है उन साधको को पहले षट्कर्मों का अभ्यास करना चाहिए । जिनमें चर्बी व मोटापा नहीं है उन योग साधकों को षट्कर्मों की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार स्वामी स्वात्माराम ने केवल चर्बी व कफ की अधिकता वालों के लिए ही षट्कर्म करने का उपदेश दिया है । जिनका वर्णन इस प्रकार है –

धौतिर्बस्तिस्तथा नेति: त्राटकं नौलिकं तथा ।
कपालभातिश्चैतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते ।। ( ह०प्र० 2/22 )

1. धौति
2. बस्ति

3. नेति
4. त्राटक
5. लौलिकी / नौलि
6. कपालभाति ।

लाभ

अब हम षट्कर्मों से होने वाले लाभों की चर्चा करते हैं । वैसे तो एक- एक षट्कर्म से हमें अनेकों लाभ मिलते हैं । लेकिन इस षट्कर्म परिचय में हम सभी षट्कर्मों से होने वाले लाभों का संक्षिप्त वर्णन करेंगें ।

1. धौति :- धौति क्रिया से हमारा पाचनतंत्र मजबूत होता हैं । आहार नलिका की सफाई होती है । और पाचनतंत्र से सम्बंधित रोग जैसे कि कब्ज, अपच, अम्लता ( एसिडिटी ) व कफ रोग आदि समाप्त होते हैं ।
2. वस्ति :- वस्ति क्रिया हमारे उत्सर्जन तंत्र को मजबूत करती है । इससे हमारी बड़ी आँत की सफाई होती है । जिससे हमारे कब्ज, बवासीर, भगन्दर , प्लीहा, वायु गोला , जठराग्नि से सम्बंधित और वात, पित्त व कफ से उत्पन्न सभी रोग समाप्त होते हैं ।
3. नेति :- नेति क्रिया से आँख, नाक व गले से सम्बंधित बीमारियों को ठीक करती है । जैसे – आँख लाल होना, दृष्टि कमजोर होना, आँखों से पानी आना, सायनस, साइनोसाइटिस, माइग्रेन, सरदर्द, गले व जत्रु अर्थात मुख से ऊपर की समस्याओं को दूर करती है । यह ई .एन. टी. रोगों के लिए बहुत ही उपयोगी होती है । इसलिए इसे ई .एन. टी. स्पेशलिस्ट ( विशेषज्ञ ) भी कहा जाता है ।
4. नौलि :- नौलि क्रिया को लोकिकी भी कहा जाता है । यह उदर ( पेट ) से सम्बंधित रोगों के लिए बहुत ज्यादा उपयोगी होती है । इसके नियमित अभ्यास से वायु रोग, भूख की अनियमितता व अपच आदि रोग दूर होते हैं । साथ ही इससे आँतों की मालिश होने से उनको मजबूती मिलती है ।
5. त्राटक :- त्राटक क्रिया से हमारी आँखों की मांसपेशियाँ मजबूत होती हैं जिससे हमारे आँखों के रोग दूर होते हैं । और इससे निद्रा व तंद्रा आदि रोग भी समाप्त होते हैं । त्राटक से मन को एकाग्र करने में बहुत सहायता मिलती है । साथ ही इससे हमारा तांत्रिक तंत्र भी संतुलित होता है । इसके अतिरिक्त त्राटक से हमें शारिरिक, मानसिक व आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होते हैं ।
6. कपालभाति :- कपालभाति क्रिया मस्तिष्क सम्बंधित रोगों के लिए बहुत ही लाभकारी होती है । इससे हमारे श्वसनतंत्र की शुद्धि होती है । फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ने से रक्त की शुद्धि होती है । साथ ही इसके नियमित अभ्यास से व्यक्ति कामदेव के समान सुन्दर हो जाता है । इसके अतिरिक्त जिनकी याददाश्त कमजोर होती है उनके लिए भी यह बहुत उपयोगी क्रिया है ।

इस प्रकार षट्कर्म के नियमित अभ्यास से हमारे सभी दोष ( वात, पित्त व कफ ) सम अवस्था में रहते हैं । जिससे इनके असन्तुलन से होने वाले सभी रोगों की सम्भावना बिलकुल कम हो जाती है । इसके अलावा षट्कर्म हमारे सभी आन्तरिक संस्थानों को शुद्ध करके उनकी कार्यक्षमता को बढ़ाते हैं ।

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  1. सर इतने साधारण शब्दो में इतनी अच्छी महँगी जानकारी
    सच में ये आपके तप का ही परिणाम है और ईश्वर की प्रेरणा आप में उतरती जिससे हम सब लाभान्वित होते है।

  2. बहुत उपयोगी जानकारी
    धन्यवाद जी ????????

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