पंचम उपदेश

 

 अध्याय की भूमिका

 

हठप्रदीपिका के पाँचवें अध्याय के विषय में दो प्रकार के मत मिलते हैं । एक तो यह कि एक मत का मानना है कि हठप्रदीपिका का यह पाँचवा अध्याय योग का पाँचवा अंग है । दूसरा मत है कि यह पाँचवा अध्याय तो है लेकिन इसे हठ प्रदीपिका में वर्णित योग का अंग नहीं माना जाता । इनमें से दोनों ही मतों के विषय में आचार्यों ने अपने अलग- अलग तर्क भी दिए हैं । जब हम इस बात का विश्लेषण करते हैं तो हमें इस बात का पता चलता है कि हठ प्रदीपिका में वर्णित पाँचवा अध्याय बिलकुल सही है । इसका वर्णन स्वामी स्वात्माराम ने ही किया है । लेकिन स्वामी स्वात्माराम ने इसे योग के पाँचवें अंग के रूप में नहीं माना है । इसका प्रमाण हठ प्रदीपिका का चौथा अध्याय है । हठ प्रदीपिका के पहले ही अध्याय में बताया गया था कि हठयोग का अन्तिम उद्देश्य राजयोग की प्राप्ति करना है । स्वामी स्वात्माराम ने योग के अन्तिम अंग के रूप में नादानुसंधान ( समाधि ) को बताया है । जिसका वर्णन हम पिछले ( चौथे ) अध्याय में कर चुके हैं । इसलिए यह पाँचवा अध्याय योग का अंग तो हो ही नहीं सकता । पाँचवें अध्याय में स्वामी स्वात्माराम ने अपने स्वयं के चिकित्सा सम्बन्धी अनुभवों को बताया है । ताकि जो भी योगी साधक योग की किसी भी क्रिया को करने में यदि गलती कर देता है तो उसका यौगिक विधि से समाधान हो सके । अतः यह अध्याय चिकित्सा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसलिए यह पाँचवा अध्याय अवश्य है लेकिन इसे हठ प्रदीपिका के योग अंगों में शामिल नहीं किया जा सकता । बहुत सारे विद्यार्थियों का यह प्रश्न था कि इस पाँचवें अध्याय को हम योग का अंग समझे कि केवल अध्याय ? उनके इस प्रश्न के समाधान हेतु ही हमने इस विषय को अध्याय के प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया । ताकि विद्यार्थियों में किसी प्रकार की भ्रम की स्थिति न रहे ।

 

 

 

प्रमादी युज्यते यस्तु वातादिस्तस्य जायते ।

तद्दोषस्य चिकित्सार्थं गतिर्वायोर्निरूप्यते ।। 1 ।।

 

भावार्थ :- योग साधना में लापरवाही बरतने वाले साधकों के शरीर में वात, पित्त व कफ से सम्बंधित रोग उत्पन्न हो जाते हैं । उन सभी रोगों की चिकित्सा हेतु प्राणवायु की गति का स्वरूप क्या होना चाहिए ? इसका वर्णन किया जा रहा है ।

 

 

विशेष :- इस अध्याय में योग मार्ग में लापरवाही बरतने वाले साधकों हेतु यौगिक चिकित्सा का वर्णन किया गया है ।

 

 

वायोरुर्ध्वं प्रवृत्तस्य गतिं ज्ञात्वा प्रयत्नतः ।

कुर्याच्चित्तकित्सां दोषस्य द्रुतं योगी विचक्षण: ।। 2 ।।

 

भावार्थ :- बुद्धिमान योग साधक को ऊपर की ओर उठने वाली प्राणवायु की गति को पूरे प्रयत्न के साथ अच्छे से समझकर उससे अतिशीघ्र ही सम्बंधित रोग की चिकित्सा करनी चाहिए ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    काफी लोगों को यह पता ही नही था कि हठयोग प्रदीपका
    का पंचम अध्याय भी है।

  2. धन्यवाद सर,पर इस पंचम उपदेश का वर्णन चाहिये

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