नारीभगे पतद् बिन्दुमभ्यासेनोर्ध्वमाहरेत् ।

चलितं च निजं बिन्दुमूर्ध्वाकृष्य रक्षयेत् ।। 87 ।।

 

भावार्थ :- सम्भोग के समय जब पुरुष के वीर्य का स्खलन अर्थात् वीर्यपात आरम्भ होकर स्त्री की योनि में वीर्य गिरता है । उस समय पुरुष को गिरते हुए वीर्य को ऊपर की ओर आकर्षित करके ( मूलबन्ध द्वारा ) वीर्य की रक्षा करनी चाहिए ।

 

एवं संरक्षयेद् बिन्दुं मृत्युं जयति योगवित् ।

मरणं बिन्दुंपातेन जीवनं बिन्दुधारणात् ।। 88 ।।

 

भावार्थ :- वीर्य की हानि अर्थात् वीर्यपात मृत्यु का प्रतीक है और वीर्य की रक्षा जीवन का । अतः जो साधक वीर्य की रक्षा कर लेता है । वह मृत्यु को भी जीत लेता है ।

 

सुगन्धो योगिनो देहे जायते बिन्दुधारणात् ।

यावद् बिन्दुं: स्थिरो देहे तावत् कालभयं कुत: ।। 89 ।।

 

भावार्थ :- बिन्दु अर्थात् वीर्य को सुरक्षित रखने से साधक का शरीर सुगन्ध से युक्त हो जाता है । जब तक साधक के शरीर में वीर्य सुरक्षित रहता है तब तक उसे मृत्यु का भय नहीं रहता ।

 

वीर्य रक्षा में चित्त की उपयोगिता

 

चित्तायत्तं नृणां शुक्रं शुक्रायत्तं च जीवितम् ।

तस्माच्छुक्रं रक्षणीयं योगिभिश्च प्रयत्नत: ।। 90 ।।

 

भावार्थ :- सभी मनुष्यों का वीर्य सदा उनके चित्त के ही नियंत्रण में होता है । इसलिए साधक को अपने चित्त पर पूर्ण नियंत्रण रखते हुए वीर्य की रक्षा करनी चाहिए ।

 

विशेष :- यहाँ इस श्लोक में चित्त के विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका का वर्णन किया गया है । बहुत सारे व्यक्तियों का मानना है कि वीर्य का पतन व रक्षा दोनों में ही हमारे शरीर का ही योगदान होता है । जबकि यह पूर्ण रूप से हमारे चित्त अथवा मन का विभाग है । वीर्य की रक्षा व पतन दोनों ही हमारे चित्त अथवा मन के द्वारा सम्भव होते हैं । कामुकता और संयम ये दोनों ही चित्त के विषय होते हैं । हमारा शरीर तो मात्र इनकी इच्छा को पूरा करने के लिए साधन के रूप में कार्य करता है । वीर्य को चित्त अथवा मन द्वारा ही पूर्ण रूप से वश में किया जा सकता है । यह बहुत सारे आचार्यों द्वारा उपदेशित व अनुभव किया हुआ प्रमाण है । यहाँ तक की जब कोई पुरुष अत्यंय खूबसूरत स्त्री के साथ सम्भोग आदि क्रिया करता है तो वह अपने वीर्य को चित्त व मन के संयम से ही सुरक्षित रखता है । जिन व्यक्तियों का सम्भोग के दौरान जल्दी वीर्यपात हो जाता है । उसके लिए उनका कमजोर चित्त अथवा मन ही दोषी होता है । जिस साधक ने अपने चित्त अथवा मन के ऊपर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेने पर संसार की कोई भी स्त्री सम्भोग के दौरान उसका वीर्यपात नहीं करवा सकती । चित्त अथवा मन के पूर्ण रूप से नियंत्रण में होने से वह अपने वीर्य का स्वामी बन जाता है । अतः उसकी इच्छा के बिना उसके वीर्य का पतन असम्भव है । इसलिए साधक को अपने चित्त को अपने नियंत्रण में करने के लिए योग साधना की आवश्यक साधनाओं का अभ्यास करना चाहिए ।

 

 

ऋतुमत्या: रजोऽप्येवं बीजं विन्दुं च रक्षयेत् ।

मेढ्रेणाकर्षयेदूर्ध्वं सम्यगभ्यासयोगवित् ।। 91 ।।

 

भावार्थ :- वज्रोली मुद्रा के अभ्यास से साधक ऋतुमती स्त्री ( जिस स्त्री को मासिक धर्म आदि नियमित रूप से आते हो ) के रज को जो कि बीज रूप होता है और वीर्य को अपने जननेन्द्रिय ( लिंग ) अंग द्वारा ऊपर की ओर खींचना चाहिए ।

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  1. बहुत ही उमदा जानकारी दी है सर,
    काम की सही जानकारी न होने के कारण व्यक्ति विशेषत: युवा वर्ग डिपरैसन में जी रहा है, जबकि काम पर विजय प्राप्त करने के लिए काम की पूर्ण जानकारी होना अत्यंत जरूरी है ।

    धन्यवाद सहित

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