घटाद्भिन्नं मन: कृत्वा ऐक्यं कुर्यात् परात्मनि ।

समाधिं तं विजानीयान्मुक्तसंज्ञो दशादिभि: ।। 3 ।।

अहं ब्रह्म न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् ।

सच्चिदानंदरूपोऽहं नित्यमुक्त: स्वभाववान् ।। 4 ।।

 

भावार्थ :- जब साधक अपने मन को शरीर से अलग समझकर उसका ( मन का )  परमात्मा के साथ एकीकरण कर देता है । तब वह समाधि की अवस्था कहलाती है । इस अवस्था में साधक जीवन की अनेक दशाओं ( सांसारिक अवस्थाओं ) से पूरी तरह मुक्त हो जाता है ।

इस प्रकार समाधि भाव को प्राप्त होने पर साधक में मैं ब्रह्मा हूँ, ब्रह्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं हूँ, मुझमे ब्रह्म भाव है न की किसी प्रकार के दुःख का भाव है । मैं सदैव मुक्त स्वभाव वाला, सत् चित्त व आनन्द के स्वरूप से परिपूर्ण हूँ ।

 

 

 

विशेष :- समाधि की अवस्था में मन का किसके साथ एकीकरण हो जाता है ? उत्तर है परमात्मा के साथ । साधक ब्रह्म भाव से कब परिपूर्ण होता है ? उत्तर है समाधि प्राप्ति के समय ।

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