जिह्वामूल धौति लाभ

 

 अथात: सम्प्रवक्ष्यामि जिह्वाशोधनकारणम् ।

जरामरणरोगादीन् नाशयेद्दीर्घलम्बिका ।। 29 ।।

 

भावार्थ :- इसके बाद मैं जिह्वा ( जीभ ) को लम्बी करने वाली, बुढ़ापा, मृत्यु, सभी रोगों को नष्ट करने वाली व जिह्वा को शुद्ध करने वाले कारण अर्थात् विधि का वर्णन करूँगा ।

 

 

विशेष :- इस श्लोक में ऋषि घेरण्ड ने जिह्वामूल धौति की विधि से पहले ही उससे होने वाले लाभों का वर्णन किया है ।

 

 

जिह्वामूल धौति विधि

 

तर्जनीमध्यमान्तानां अङ्गुलित्रययोगत: ।

वेशयेद् गलमध्ये तु मार्जयेल्लम्बिका जडम् ।

शनै: शनैर्मार्जयित्वा कफदोषं निवारयेत् ।। 30 ।।

 

भावार्थ :- तर्जनी ( पहली अँगुली ), मध्यमा  ( दूसरी, सबसे बड़ी या बीच वाली अँगुली ) और अनामिका ( तीसरी अँगुली या रिंग फिंगर ) अँगुलियों को एकसाथ मिलाकर गले के बीच में स्थित जिह्वा के मूलभाग को धीरे- धीरे से रगड़ते हुए जीभ पर लगे मल ( गन्दगी ) को साफ करना चाहिए । इस प्रकार जीभ को शुद्ध करने से कफ विकार भी समाप्त होते हैं ।

 

 

विशेष :- जिह्वामूल धौति के लिए पहली तीन अँगुलियों से जीभ को रगड़कर साफ करने की बात कही गई है । हमारे हाथ की पहली अँगुली को तर्जनी, दूसरी को मध्यमा, तीसरी को अनामिका, चौथी को कनिष्का व अँगूठे को अँगुष्ठ कहा जाता है । यह सभी इनके संस्कृत नाम हैं ।

 

 

मार्जयेन्नवनीतेन दोहयेच्च पुनः पुनः ।

तदग्रं लौहयन्त्रेण कर्षयित्वा शनै: शनै: ।। 31 ।।

 

भावार्थ :- इसके उपरान्त जीभ के ऊपर मक्खन को रगड़कर बार- बार उसका दोहन ( उसे लम्बा ) करना चाहिए । फिर लोहे की चिमटी द्वारा जीभ के अग्र भाग ( अगले हिस्से ) को पकड़कर उसे धीरे- धीरे खीचना चाहिए ।

 

 

नित्यं कुर्यात् प्रयत्नेन रवेरुदयकेऽस्तके ।

एवं कृते च नित्यं सा लम्बिका दीर्घतां व्रजेत् ।। 32 ।।

 

भावार्थ :- साधक द्वारा प्रतिदिन सूर्योदय ( सूर्य के निकलते समय ) व सूर्यास्त ( सूर्य के छिपते समय ) के समय पर पूरे प्रयत्न ( मनोभाव ) के साथ इसका अभ्यास करने से जीभ की लम्बाई बढ़ जाती है ।

 

कर्ण धौति विधि व लाभ

 

 तर्जन्यनामिकायोगान्मार्जयेत् कर्णरन्ध्रयो: ।

नित्यमभ्यासयोगेन नादान्तरं प्रकाशयेत् ।। 33 ।।

 

भावार्थ :- तर्जनी ( पहली अँगुली ) व अनामिका ( तीसरी, रिंग फिंगर ) दोनों अँगुलियों को मिलाकर इनके अग्रभाग से दोनों कानों की सफाई करना कर्णरन्ध्र धौति कहलाती है । प्रतिदिन कर्णरन्ध्र धौति का अभ्यास करने से साधक के अन्दर आन्तरिक नाद प्रकट ( सुनाई देने ) होने लगता है ।

 

 

कपालरन्ध्र धौति विधि व लाभ

 

बद्धाङ्गुष्ठेन दक्षणे मार्जयेद् भालरन्ध्रकम् ।

निद्रान्ते भोजनान्ते न दिवान्ते च दिने दिने ।। 34 ।।

 

भावार्थ :- दायें हाथ के अँगूठे से सिर के ऊपरी भाग का ( जहाँ पर छोटे बच्चों के सिर में एक अत्यन्य नाजुक स्थान होता है जो निरन्तर धड़कता रहता है ) प्रतिदिन प्रातःकाल, भोजन करने के बाद व दिन के अन्त में अर्थात् सायंकाल मार्जन ( हल्की मालिश द्वारा उसे शुद्ध करना ) करना कपालरंध्र धौति कहलाता है ।

 

 

विशेष :- कपालरंध्र धौति का अभ्यास साधक को दिन में तीन बार करना चाहिए । जिसका क्रम इस प्रकार है :- प्रातःकाल, दोपहर के भोजन के बाद व सांयकाल में । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी है । परीक्षा में इस प्रकार की बात पूछी जा सकती है कि कपालरंध्र धौति का अभ्यास दिन में कितनी बार करना चाहिए ? इसका उत्तर है तीन बार । इसके साथ ही यह भी पूछा जा सकता है कि किस अंग से कपाल की शुद्धि करनी चाहिए ? व सिर के किस हिस्से की शुद्धि करनी चाहिए ? जिनके उत्तर क्रमशः दायें हाथ का अँगूठा व सिर का ऊपरी भाग हैं । अतः इसे सभी विद्यार्थी नोट करलें ।

 

 

 

 कपालरंध्र धौति लाभ

 

 नाडी निर्मलतां याति दिव्यदृष्टि: प्रजायते ।

एवमभ्यासयोगेन कफदोषं निवारयेत् ।। 35 ।।

 

भावार्थ :- कपालरंध्र धौति का नियमित रूप से अभ्यास करने से साधक की सभी नाड़ियाँ निर्मल ( शुद्ध ) हो जाती हैं । दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है और सभी कफदोषों की समाप्ति हो जाती है ।

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