सातवां अध्याय ( ज्ञान- विज्ञान योग ) सातवें अध्याय में योगीराज श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि इस ब्रह्म ज्ञान को जानने के बाद कोई भी ऐसा ज्ञान शेष नहीं बचता है, जिसे जानना जरूरी हो । इस अध्याय में कुल तीस ( 30 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है । जिसमें परब्रह्ना की

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Bhagwad Geeta Ch. 7 [1-3]

आठ प्रकार की अपरा प्रकृति   भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। 4 ।। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ।। 5 ।।     व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण अपनी अपरा प्रकृति को बताते हुए कहते हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश,

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Bhagwad Geeta Ch. 7 [4-6]

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।। 7 ।।     व्याख्या :-  हे धनंजय ! मुझसे परे अन्य कोई भी नहीं है अर्थात् मेरे अलावा इस जगत् की उत्पत्ति का कोई अन्य आधार नहीं है । जिस प्रकार सूत्र के धागे में अनेकों मोती पिरोये होते हैं, उसी प्रकार

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Bhagwad Geeta Ch. 7 [7-11]

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये । मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।। 12 ।।     व्याख्या :-  ये सात्त्विक, राजसिक व तामसिक भाव अथवा गुण हैं, इनकी उत्पत्ति का आधार भी मैं ही हूँ, लेकिन ये सब मुझसे उत्पन्न होते हैं, पर मैं उनसे रहित हूँ अर्थात् यह सभी मेरे अधिकार

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Bhagwad Geeta Ch. 7 [12-15]

चार प्रकार के भक्त   चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। 16 ।।     व्याख्या :-  हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! चार प्रकार के भक्त मेरा भजन अर्थात् भक्ति करते हैं – आर्त ( दुःख अथवा संकट से छुटकारा चाहने वाले ),  जिज्ञासु ( ज्ञान अथवा रहस्य

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Bhagwad Geeta Ch. 7 [16]

सबसे उत्तम अथवा प्रिय भक्त ( ज्ञानी )   तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।। 17 ।।     व्याख्या :-  इनमें ( चारों प्रकार के भक्तों में ) से जो ज्ञानी भक्त प्रतिदिन निष्काम भाव से युक्त होकर, अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, वह भक्त

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Bhagwad Geeta Ch. 7 [17-19]

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः । तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।। 20 ।।     व्याख्या :-  कामनाओं अथवा इच्छाओं ने जिनके ज्ञान को अपने अधीन कर लिया है । वह सभी अपने- अपने स्वभाव अथवा प्रकृति के वशीभूत होकर अपनी- अपनी आस्था के अनुसार नियमों का पालन करके अपने – अपने देवता की पूजा- उपासना

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Bhagwad Geeta Ch. 7 [20-23]