प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ।। 45 ।।     व्याख्या :-  इस प्रकार जो योगी पूर्ण रूप से प्रयत्नशील होकर अथवा पूर्ण मनोयोग से अभ्यास करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर अनेक जन्मों द्वारा बहुत सारी सिद्धियाँ प्राप्त करके, परमगति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।  

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [45-47]

योगभ्रष्ट अथवा योगमार्ग से विचलित पुरुष की क्या दशा होती है ?   प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः । शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।। 41 ।। अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ । एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ।। 42 ।।       व्याख्या :-  योगभ्रष्ट पुरुष पुण्य आत्माओं द्वारा भोगे जाने वाले स्वर्ग आदि

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [41-44]

अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।। 37 ।। कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।। 38 ।।       व्याख्या :-  अर्जुन पूछता है- हे कृष्ण ! जिस साधक में योग के प्रति श्रद्धा तो है, लेकिन उसकी साधना में क्रियाशीलता नहीं है अर्थात् जिसका

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [37-40]

श्रीभगवानुवाच   मन को नियंत्रण में करने के उपाय   अभ्यास और वैराग्य   असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।। 35 ।।     व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं – हे महाबाहो ! निःसन्देह इस चंचल मन को नियंत्रण ( वश ) में करना अत्यन्त

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [35-36]

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।। 31 ।।       व्याख्या :-  इस प्रकार एकात्म भाव में स्थित हुआ पुरुष जब सभी प्राणियों में मुझे ही भजता अर्थात् मेरा ही भजन करता है, तो वह सभी सांसारिक कार्य करता हुआ भी मेरे लिए ही कार्य करता है अर्थात्

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [31-34]

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ । उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ।। 27 ।।     व्याख्या :-  इस प्रकार चंचल मन को एकाग्र करके अपनी आत्मा के अधीन करने से मन पूरी तरह से शान्त होकर निष्पाप अर्थात् पाप रहित हो जाता है । मन के शान्त होने पर साधक का रजोगुण भी शान्त हो जाएगा, जिससे

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [27-30]

योग की परिभाषा   तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।। 23 ।।     व्याख्या :-  दुःख के संयोग से रहित अर्थात् सुख स्वरूप अवस्था को ही योग कहा जाता  है । योगी साधक को इस योग का अभ्यास उत्साहित मन व पूर्ण निश्चय अथवा मनोयोग के साथ करना चाहिए ।

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [23-26]