योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।। 41 ।।     व्याख्या :-  हे धनंजय ! जिस मनुष्य ने योग द्वारा अपने सभी कर्मों का व ज्ञान द्वारा सभी संशयों को दूर ( त्याग ) कर दिया है, उस आत्मज्ञानी पुरूष को कर्मबन्धन कभी नहीं बाँधते ।        तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [41-42]

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।। 36 ।।     व्याख्या :-  यदि तुम सभी पाप करने वाले पापियों से भी ज्यादा पापी हो, तो भी यह ज्ञानयोग रूपी नौका तुम्हें सभी पापों से पार लगा देगी, जिसके बाद तुम्हारा जीवन साधु अथवा सन्यासी की तरह हो जाएगा ।  

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [36-40]

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ । नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।। 31 ।।     व्याख्या :-  हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञ से बचा हुआ अवशेष अर्थात् यज्ञ के बाद बचे हुए पदार्थों का सेवन करना अमृत के समान होता है, ऐसा करने वाले साधक उस सनातन परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं ।

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [31-35]

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।। 28 ।।     व्याख्या :-  इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व  ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।       विशेष :-  इस श्लोक में वर्णित गूढ़ शब्दों का अर्थ इस प्रकार है :-  

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [28-30]

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते । ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।। 25 ।।     व्याख्या :-  कुछ योगीजन देवताओं की पूजा- उपासना रूपी यज्ञ ( हवन ) करते हैं और कुछ परमात्मा रूपी ब्रह्माग्नि में स्वयं को समर्पित करके यज्ञ ( हवन ) करते हैं अर्थात् अपने अहंभाव को छोड़कर परमात्मा में पूर्ण रूप से समर्पण

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [25-27]

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ।। 21 ।।       व्याख्या :-  जो मनुष्य अपने चित्त व आत्मा को अपने वश में करके, कर्मफल की आसक्ति को त्यागकर और सभी प्रकार के परिग्रह ( अनावश्यक विचारों अथवा वस्तुओं के संग्रह ) को त्यागकर, केवल शारीरिक कर्म करता हुआ कभी भी पाप

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [21-24]

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।। 17 ।।     व्याख्या :-  कर्म, अकर्म और विकर्म क्या हैं ? इनके वास्तविक स्वरूप को जानना बहुत आवश्यक है, क्योंकि कर्म की गति बहुत ही गहरी अथवा सूक्ष्म होती है ।     विशेष :-  इस श्लोक में कर्म के

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [17-20]