चौथा अध्याय ( ज्ञान – कर्म सन्यासयोग ) चौथे अध्याय में मुख्य रूप से कर्म व ज्ञान का उपदेश दिया गया है । इसमें कुल बयालीस ( 42 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है । इस अध्याय के आरम्भ में ही श्रीकृष्ण योग की पुरातन परम्परा का परिचय देते हुए कहते हैं कि यह

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [1-3]

अर्जुन उवाच   अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।। 4 ।। व्याख्या :-  अब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा – हे कृष्ण आपका जन्म तो अभी का ( कुछ वर्ष पूर्व का ही ) है और विवस्वान ( सूर्य ) का जन्म तो अत्यंत प्राचीन अर्थात् बहुत पहले हो चुका,

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [4-8]

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः । त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।। 9 ।।     व्याख्या :-  हे अर्जुन ! जो व्यक्ति मेरे दिव्य जन्म और कर्म के रहस्यों को तत्त्व रूप से जान लेता है, वह मृत्यु के बाद कभी भी पुनः जन्म नहीं लेता, बल्कि वह जन्म- मरण

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [9-12]

चार वर्ण   चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ।। 13 ।।     व्याख्या :-  गुण व कर्म के आधार पर मैंने ही इस सृष्टि को चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ) की रचना की है । इस प्रकार तुम मुझे इस सृष्टि का कर्ता ( रचनाकार )

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [13-16]

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।। 17 ।।     व्याख्या :-  कर्म, अकर्म और विकर्म क्या हैं ? इनके वास्तविक स्वरूप को जानना बहुत आवश्यक है, क्योंकि कर्म की गति बहुत ही गहरी अथवा सूक्ष्म होती है ।     विशेष :-  इस श्लोक में कर्म के

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [17-20]

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ।। 21 ।।       व्याख्या :-  जो मनुष्य अपने चित्त व आत्मा को अपने वश में करके, कर्मफल की आसक्ति को त्यागकर और सभी प्रकार के परिग्रह ( अनावश्यक विचारों अथवा वस्तुओं के संग्रह ) को त्यागकर, केवल शारीरिक कर्म करता हुआ कभी भी पाप

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [21-24]

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते । ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।। 25 ।।     व्याख्या :-  कुछ योगीजन देवताओं की पूजा- उपासना रूपी यज्ञ ( हवन ) करते हैं और कुछ परमात्मा रूपी ब्रह्माग्नि में स्वयं को समर्पित करके यज्ञ ( हवन ) करते हैं अर्थात् अपने अहंभाव को छोड़कर परमात्मा में पूर्ण रूप से समर्पण

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Bhagwad Geeta Ch. 4 [25-27]