तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ।। 41 ।।     व्याख्या :-  इसलिए हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! सबसे पहले तुम अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करो और उसके बाद तुम ज्ञान – विज्ञान को नष्ट करने वाले इस कामरूपी पापी को भी नष्ट कर डालो ।       इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः

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Bhagwad Geeta Ch. 3 [41-43]

अर्जुन उवाच :-   अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ।। 36 ।।     व्याख्या :-  अब अर्जुन प्रश्न करते हुए कहता है :- हे वार्ष्णेय ! ( कृष्ण ) अब मुझे यह बताओ कि मनुष्य न चाहते हुए भी अपनी इच्छा के विरुद्ध, किसकी प्रेरणा से प्रेरित होकर

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Bhagwad Geeta Ch. 3 [36-40]

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। 35 ।।     व्याख्या :-  दूसरे के ज्यादा सुखकारी अथवा अच्छे दिखने वाले परधर्म से अपना कठिन व कम अच्छा दिखने वाला स्वधर्म ही ज्यादा कल्याणकारी होता है । अपने स्वयं के धर्म का पालन करते हुए मरना भी श्रेष्ठ है, परन्तु दूसरे के

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Bhagwad Geeta Ch. 3 [35]

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ।। 31 ।। ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।। 32 ।।       व्याख्या :-   जो भी पुरुष मेरे द्वारा बताई गई बातों में दोष दृष्टि को त्यागकर श्रद्धापूर्वक उनका पालन करता है, वह सभी प्रकार के कर्म बन्धनों से मुक्त

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Bhagwad Geeta Ch. 3 [31-34]

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।। 27 ।।     व्याख्या :-  सम्पूर्ण कार्यों का आधार यह प्रकृति ही है, इसके गुणों ( सत्त्व, रज व तम ) द्वारा ही सभी कार्य सम्पन्न होते हैं, लेकिन कुछ अज्ञानी पुरुष अहंकार से प्रेरित होकर स्वयं को ही कर्ता ( यह कार्य मेरे

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Bhagwad Geeta Ch. 3 [27-30]

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ।। 25 ।।       व्याख्या :-  हे भारत ! ( अर्जुन ) लोक कल्याण की भावना रखने वाले ज्ञानी पुरुषों को भी फल की आसक्ति का त्याग करके, ठीक उसी प्रकार का आचरण अथवा व्यवहार करना चाहिए, जिस प्रकार का आचरण फल में आसक्ति रखने वाले

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Bhagwad Geeta Ch. 3 [25-26]

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।। 20 ।।     व्याख्या :-  पूर्व समय में राजा जनक आदि अनेक ज्ञानी जनों ने निष्काम भाव से कर्म करते हुए परमगति अथवा परमसिद्धि को प्राप्त किया था । इसलिए लोक कल्याण की भावना का ध्यान रखते हुए कर्म ( आसक्ति रहित ) करना ही हितकारी

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Bhagwad Geeta Ch. 3 [20-24]