या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। 69 ।।   व्याख्या :- जो सामान्य जनों ( लोगों ) के लिए रात्रि है । जिसमें वह विश्राम करते हैं । संयमी ( ज्ञानवान ) व्यक्ति अथवा योगी के लिए वह दिन की तरह होती है अर्थात् जिस समय

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Bhagwad Geeta Ch. 2 [69-72]

बुद्धि को स्थिर व मन को प्रसन्न करने के उपाय    रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।। 64 ।। प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।। 65 ।।     व्याख्या :- जिस भी साधक ने अपने अन्तःकरण को अपने वश में कर लिया है । वह संयमित होकर विषयों का सेवन करता

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Bhagwad Geeta Ch. 2 [64-68]

व्यक्ति के पतन का कारण   ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। 62 ।। क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। 63 ।।     व्याख्या :-  विषय- वासनाओं का बार- बार चिन्तन करने ( सोचने ) से मनुष्य की विषयों में आसक्ति हो जाती है । विषयों के प्रति आसक्ति होने

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Bhagwad Geeta Ch. 2 [62-63]

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ।। 59 ।। यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।। 60 ।।     व्याख्या :-  निराहार अर्थात् आहार के न ग्रहण करने के कारण शरीर में दुर्बलता आती है । जिसके कारण मनुष्य की विषयों ( कामनाओं ) के

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Bhagwad Geeta Ch. 2 [59-61]

स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं ?    अर्जुन उवाच स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ।। 54 ।।     व्याख्या :-  अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछता है कि हे केशव ! आप मुझे यह बताइये कि स्थितप्रज्ञ अथवा समाधिस्थ साधक की क्या परिभाषा या लक्षण होते हैं ? वह

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Bhagwad Geeta Ch. 2 [54-58]

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ।। 51 ।।     व्याख्या :-  समबुद्धि से युक्त मनीषी अथवा ऋषिगण प्रत्येक कर्म ( कार्य ) को फल की आसक्ति ( इच्छा ) से रहित होकर करते हैं । जिससे वह जन्म- मरण के बन्धन व दुःखों अथवा शोक से पूरी तरह मुक्ति

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Bhagwad Geeta Ch. 2 [51-53]

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ।। 50 ।।   व्याख्या :-  जो व्यक्ति समबुद्धि से युक्त होकर कार्य करता है । वह इस संसार में सभी पाप व पुण्य कर्मों से रहित हो जाता है । इसलिए हमें समबुद्धि का सहारा लेकर ही सभी कार्य करने चाहिए । इस प्रकार

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Bhagwad Geeta Ch. 2 [50]