सोलहवां अध्याय ( दैवासुर सम्पद् विभागयोग )   जिस प्रकार नाम से ही विदित होता है कि इस अध्याय में दैवी व आसुरी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों के लक्षणों का वर्णन किया गया है । इसमें कुल चौबीस ( 24 ) श्लोकों के द्वारा दैवी व आसुरी शक्तियों का वर्णन किया गया है । इसमें पहले

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Bhagwad Geeta Ch. 16 [1-3]

छ: आसुरी अवगुण ( आसुरी प्रवृत्ति के लक्षण )    दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌ ।। 4 ।।     व्याख्या :-  अब श्रीकृष्ण आसुरी सम्पदा के साथ पैदा हुए लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं – हे पार्थ ! दम्भ ( स्वयं को झूठे रूप में प्रस्तुत करना

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Bhagwad Geeta Ch. 16 [4-6]

आसुरी प्रवृत्ति से युक्त मनुष्यों के लक्षण   प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।। 7 ।।       व्याख्या :-  जो आसुरी सम्पदा वाले व्यक्ति होते हैं, वह प्रवृत्ति और निवृत्ति के विषय में नहीं जानते अर्थात् उन्हें क्या करना चाहिए और क्या

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Bhagwad Geeta Ch. 16 [7-10]

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः । कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ।। 11 ।।     व्याख्या :-  मृत्युपर्यन्त जीवित रहने वाली अनेक चिन्ताओं का आश्रय अथवा सहारा लेने वाले, काम और भोग को ही श्रेष्ठ मानने वाले लोगों का यही निश्चित मत होता है कि यह काम और भोग ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य होते हैं ।  

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Bhagwad Geeta Ch. 16 [11-16]

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌ ।। 17 ।।     व्याख्या :-  यह असुर व्यक्ति अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले, अभिमानपूर्ण अथवा कठोर व्यवहार करने वाले, धन और मद से युक्त होकर, शास्त्र विधि को छोड़कर, पाखण्ड पूर्ण तरीके से केवल नाममात्र का यजन – पूजन करते हैं ।    

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Bhagwad Geeta Ch. 16 [17-19]

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌ ।। 20 ।।     व्याख्या :-  हे कौन्तेय ! वह मूर्ख लोग मुझे प्राप्त न होकर बार- बार असुर योनियों में ही जन्म लेते रहते हैं । इस प्रकार वह मुझे न प्राप्त करके आगे और भी अधिक पाप योनियों में जन्म लेते

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Bhagwad Geeta Ch. 16 [20-22]

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ।। 23 ।।     व्याख्या :-  इसके विपरीत जो व्यक्ति शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी इच्छानुसार व्यवहार करता है, तो उसे न सिद्धि मिलती है, न सुख मिलता है और न ही परमगति प्राप्त होती है ।       कार्य

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Bhagwad Geeta Ch. 16 [23-24]