पन्द्रहवां अध्याय ( पुरुषोत्तम योग ) इस अध्याय में कुल बीस ( 20 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है । जिसमें परमपद के लक्षणों का, जीवन का स्वरूप, आत्मा के ज्ञान व पुरुषोत्तम ज्ञान के स्वरूप की चर्चा की गई है । पहले उस परमपद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सम्मान

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Bhagwad Geeta Ch. 15 [1-4]

परमपद प्राप्ति   निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ।। 5 ।।     व्याख्या :-  जो मान व मोह से मुक्त हैं, जिन्होंने सङ्ग रूपी ( आसक्ति ) दोष पर विजय प्राप्त कर ली है, जो सभी कामनाओं से निवृत्त होकर निरन्तर आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर रहते हैं और जो सुख- दुःख

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Bhagwad Geeta Ch. 15 [5-8]

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।। 9 ।।     व्याख्या :-  यह जीवात्मा कान, नेत्र, त्वचा, जीभ व नासिका ( पंच ज्ञानेन्द्रियों ) और एक मन का आश्रय ( सहारा ) लेकर स्वामी रूप में सभी विषयों का सेवन करता है अथवा सभी विषय भोगों को भोगता है

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Bhagwad Geeta Ch. 15 [9-12]

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।। 13 ।।     व्याख्या :-  मैं ही इस पृथ्वी में प्रवेश करके अपने सामर्थ्य से सभी प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही चन्द्रमा बनकर सभी फूलों और औषधियों में रस का संचार करके उनका पोषण करता हूँ ।    

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Bhagwad Geeta Ch. 15 [13-16]

उत्तम पुरुष = ईश्वर ( परमात्मा )   उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। 17 ।।     व्याख्या :-  इन दोनों पुरुषों से भिन्न उस उत्तम पुरुष को परमात्मा कहते हैं, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पोषण करता है, उसी अविनाशी पुरुष को ईश्वर कहते हैं ।    

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Bhagwad Geeta Ch. 15 [17-20]