तेरहवां अध्याय ( क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ) इस अध्याय में मुख्य रूप से क्षेत्र ( शरीर ) व क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) के स्वरूप का वर्णन कुल चौतीस ( 34 ) श्लोकों के माध्यम से किया गया है । सबसे पहले श्रीकृष्ण क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ को समझाते हुए कहते हैं कि इस शरीर को क्षेत्र व आत्मा

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Bhagwad Geeta Ch. 13 [1-4]

क्षेत्र का स्वरूप   महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।। 5 ।। इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌ ।। 6 ।।       व्याख्या :-  पंच महाभूत ( आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी ), अहंकार, बुद्धि, मन, अव्यक्त प्रकृति, दस इन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ- पाँच

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Bhagwad Geeta Ch. 13 [5-6]

ज्ञान के तत्त्व   अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌ । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।। 7 ।। इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्‍कार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्‌ ।। 8 ।। असक्तिरनभिष्वङ्‍ग: पुत्रदारगृहादिषु ।  नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।। 9 ।। मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।। 10 ।। अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।। 11 ।।       व्याख्या :-  अभिमान (

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Bhagwad Geeta Ch. 13 [7-11]

ज्ञेय क्या है ? ( जानने योग्य कौन है ? )   ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।। 12 ।।     व्याख्या :-  जो जानने योग्य परब्रह्मा है, जिसको जानने से मनुष्य को उस परमानन्दस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है, अब मैं सत् और असत् से परे उस अनादि स्वरूप के

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Bhagwad Geeta Ch. 13 [12-15]

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ । भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। 16 ।।       व्याख्या :-  सभी प्राणियों में उसकी उपस्थिति होने से वह अविभक्त ( जिसके अन्य भाग न हो सके ) होते हुए भी विभक्त है, सभी प्राणियों को उत्पन्न भी वही करता है और सभी को नष्ट

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Bhagwad Geeta Ch. 13 [16-19]

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।। 20 ।।     व्याख्या :-  कार्य तथा करण अर्थात् शरीर तथा इन्द्रियों के उत्पन्न होने का हेतु अर्थात् कारण प्रकृति है और सुख- दुःख को भोगने का हेतु अर्थात् कारण यह पुरुष अर्थात् आत्मा होता है ।     विशेष :- कार्य तथा करण का

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Bhagwad Geeta Ch. 13 [20-23]

ध्यानयोग, सांख्ययोग व कर्मयोग द्वारा आत्मा का प्रत्यक्षीकरण   ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। 24 ।।     व्याख्या :-  कुछ लोग ध्यानयोग द्वारा अपने आप में ही अपनी आत्मा को देखते हैं, तो कुछ अन्य लोग सांख्ययोग और कर्मयोग द्वारा इस आत्मतत्त्व को देखते हैं ।     विशेष

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Bhagwad Geeta Ch. 13 [24-27]