बारहवां अध्याय ( भक्तियोग ) इस अध्याय में सच्चे भक्त के गुणों का वर्णन किया गया है साथ ही श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनको किस प्रकार का भक्त सबसे अधिक प्रिय है ? इस अध्याय में कुल बीस ( 20 ) श्लोकों का ही वर्णन किया गया है । सर्वप्रथम अर्जुन पूछता है कि जो

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Bhagwad Geeta Ch. 12 [1-4]

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।। 5 ।।     व्याख्या :-  जिनके चित्त में आसक्ति का भाव भरा हुआ है, उनके लिए मेरे इस अव्यक्त ( निराकार ) स्वरूप की उपासना करने में अधिक कठिनाई या पीड़ा का अनुभव होता है, क्योंकि देहधारी मनुष्यों द्वारा अव्यक्त उपासना के मार्ग को प्राप्त करना बहुत

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Bhagwad Geeta Ch. 12 [5-8]

अभ्यास योग   अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।। 9 ।।       व्याख्या :-  इस प्रकार यदि तुम्हारा चित्त मुझमें स्थिर न भी हो पाए तो हे धनंजय ! अभ्यास योग द्वारा अपने चित्त को एकाग्र करने का बार – बार प्रयास करते हुए मुझे प्राप्त

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Bhagwad Geeta Ch. 12 [9-10]

फलासक्ति का त्याग   अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः । सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ।। 11 ।।       व्याख्या :-  यदि तुम मेरे लिए कर्म करने में भी असमर्थ हो अर्थात् यदि तुम अपने समस्त कर्मों को मुझमें समर्पित करने में भी समर्थ नहीं हो, तो तुम मेरा आश्रय लेकर अपनी आत्मा को बलवान बनाते

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Bhagwad Geeta Ch. 12 [11-12]

प्रिय भक्त के लक्षण   अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ।। 13 ।। संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। 14 ।।       व्याख्या :-  जो भक्त किसी के प्रति द्वेष भावना नहीं रखता, जो सभी प्राणियों से मित्रता रखता है, जो

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Bhagwad Geeta Ch. 12 [13-15]

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। 16 ।।     व्याख्या :-  जो भक्त किसी से किसी भी प्रकार की अपेक्षा ( उम्मीद ) नहीं रखता, जो पवित्र ( शुद्ध ) है, जिसके कार्यों में कुशलता है, जो सबके प्रति उदासीनता ( न किसी से दोस्ती न किसी से

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Bhagwad Geeta Ch. 12 [16-17]

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः ।। 18 ।। तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌ । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।। 19 ।।       व्याख्या :-  जिसके लिए मित्र और शत्रु दोनों ही एक समान हैं तथा जिसके लिए मान व अपमान दोनों ही परिस्थितियों एक समान हैं, जो सर्दी-

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Bhagwad Geeta Ch. 12 [18-20]