नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप । एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ।। 40 ।।     व्याख्या :-  हे परन्तप ! ( अर्जुन ) मेरी दिव्य विभूतियों के विस्तार का कोई अन्त नहीं है अर्थात् मेरी विभूतियाँ अनन्त हैं । यहाँ पर मैंने अपनी विभूतियों का सार रूप में वर्णन किया है ।    

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Bhagwad Geeta Ch. 10 [40-42]

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ । जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌ ।। 36 ।।     व्याख्या :-  छल करने वालों में मैं द्युत अर्थात् जुआ हूँ और तेजस्वियों में मैं तेज हूँ । विजेताओं में मैं विजय हूँ, निश्चय करने वालों का मैं निश्चय हूँ और सत्त्वशीलों में मैं सत्त्व गुण वाला हूँ ।     वृष्णीनां

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Bhagwad Geeta Ch. 10 [36-39]

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन । अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌ ।। 32 ।।     व्याख्या :-  हे अर्जुन ! इस पूरी सृष्टि का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ, सभी विद्याओं में मैं अध्यात्म विद्या हूँ और सभी प्रवादों में वाद भी मैं ही हूँ ।     विशेष :-  सृष्टि के आदि का अर्थ

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Bhagwad Geeta Ch. 10 [32-35]

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्‌ । प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ।। 28 ।।       व्याख्या :-  सभी अस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गायों में मैं कामधेनु गाय हूँ, सन्तान पैदा करने वाला कामदेव भी मैं ही हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि भी मैं ही हूँ ।     विशेष :-  वज्र सभी अस्त्रों

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Bhagwad Geeta Ch. 10 [28-31]

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्‌ । सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ।। 24 ।।       व्याख्या :-  हे पार्थ ! पुरोहितों में मुझे मुख्य पुरोहित बृहस्पति जानो, सेनापतियों अथवा सेनानायकों में मैं कार्तिकेय हूँ और जलाशयों में मैं समुद्र हूँ ।     महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌ । यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ।।

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Bhagwad Geeta Ch. 10 [24-27]

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः । इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।। 22 ।।       व्याख्या :-   वेदों में मैं सामवेद हूँ, देवताओं में मैं इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मैं मन हूँ और प्राणियों में मैं चेतना हूँ ।     विशेष :- भगवान ने स्वयं को वेदों में कौनसा वेद कहा है ? उत्तर

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Bhagwad Geeta Ch. 10 [22-23]

श्रीभगवानुवाच हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।। 19 ।।     व्याख्या :-   भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! अब मैं तुम्हें अपनी प्रधान अथवा मुख्य विभूतियों का ही वर्णन करूँगा, क्योंकि मेरी विभूतियों के विस्तार का कोई अन्त नहीं है अर्थात् मेरी विभूतियाँ अनन्त हैं

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Bhagwad Geeta Ch. 10 [19-21]