तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ।। 55 ।। शब्दार्थ :- तत: ( उसके बाद अर्थात प्रत्याहार की सिद्धि होने पर ) परमा ( परम अर्थात सबसे ऊँचा ) वश्यता ( वशीकरण अर्थात नियंत्रण ) इन्द्रियाणाम् ( इन्द्रियों पर आता है ।) सूत्रार्थ :- उस प्रत्याहार के सिद्ध होने से योगी साधक का इन्द्रियों पर पूरी तरह से

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Yoga Sutra 2 – 55

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार: ।। 54 ।। शब्दार्थ :- स्वविषय ( अपने- अपने विषयों अर्थात कार्यों के साथ ) असम्प्रयोगे ( जुड़ाव या सम्बन्ध न होने से ) चित्तस्य- स्वरूपानुकार ( चित्त के वास्तविक स्वरूप के ) इव ( समान या अनुसार ) इन्द्रियाणाम् ( इन्द्रियों का भी वैसा ही हो जाना ) प्रत्याहार: (

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Yoga Sutra 2 – 54

धारणासु च योग्यता मनस: ।। 53 ।।   शब्दार्थ :- च ( और ) मनस: ( मन को ) धारणासु ( कहीं भी एकाग्र करने की ) योग्यता ( काबलियत या सामर्थ्य बढ़ जाता है । )    सूत्रार्थ :- और ( प्राणायाम के करने से ) मन को कहीं पर भी एकाग्र करने या

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Yoga Sutra 2 – 53

तत: क्षीयते प्रकाशावरणम् ।। 52 ।।   शब्दार्थ :- तत: ( उस अर्थात प्राणायाम से ) प्रकाश ( ज्ञान ) आवरणम् ( परत या पर्दा ) क्षीयते ( कमजोर होता है । )    सूत्रार्थ :- प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान के ऊपर जमी हुई परत या पर्दा कमजोर हो जाता है ।   व्याख्या

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Yoga Sutra 2 – 52

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थ: ।। 51 ।। शब्दार्थ :- बाह्य ( श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोकना ) आभ्यन्तर ( श्वास को अन्दर लेकर अन्दर ही रोकना ) विषय ( कार्य या कर्म का ) आक्षेपी ( त्याग या विरोध करने वाला ) चतुर्थ: ( यह चौथा प्राणायाम है । ) सूत्रार्थ :- श्वास को

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Yoga Sutra 2 – 51

बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभि: परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्म: ।। 50 ।।   शब्दार्थ :- बह्यवृत्ति: ( प्राणवायु को बाहर निकाल कर बाहर ही रोकना ) आभ्यंतर वृत्ति: ( प्राणवायु को अन्दर भरकर अन्दर ही रोकना ) स्तम्भवृत्ति: ( प्राणवायु को न भीतर भरना न ही बाहर छोड़ना अर्थात प्राणवायु जहाँ है उसे वहीं पर रोकना ) देश ( स्थान अर्थात

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Yoga Sutra 2 – 50

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: ।। 49 ।।   शब्दार्थ :- तस्मिन् सति ( उसके बाद अर्थात आसन की सिद्धि के बाद ) श्वास ( पूरक अर्थात प्राणवायु को अन्दर लेने व ) प्रश्वासयो: ( रेचक अर्थात प्राणवायु को बाहर छोड़ने की ) गतिविच्छेद: ( सामान्य गति को अपनी सुविधानुसार रोक देना या स्थिर कर देना

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Yoga Sutra 2 – 49