कुण्डलिनी का महत्त्व   सशैलवनधात्रीणां यथा धारोऽहिनायक: । सर्वेषां योगतन्त्राणां तथा धारो हि कुण्डली ।। 1 ।।   भावार्थ :- जिस प्रकार शेषनाग को वन पर्वतों सहित पूरी पृथ्वी का आधार माना जाता है । ठीक उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति को सभी योग व तन्त्रों का आधार माना जाता है ।   सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा

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Hatha Pradipika Ch. 3 [1-3]

ब्रह्मनाड़ी / सुषुम्ना नाड़ी के पर्यायवाची शब्द   सुषुम्णा शून्यपदवी ब्रह्मरन्ध्र महापथ: । श्मशानं शाम्भवी मध्यमार्गर्श्चेत्येकवाचका: ।। 4 ।।   भावार्थ :- सुषुम्ना, शून्यपदवी, ब्रह्मरन्ध्र, महापथ, श्मशान, शाम्भवी और मध्यमार्ग यह सभी ब्रह्मनाड़ी / सुषुम्ना नाड़ी के ही पर्यायवाची शब्द हैं ।     तस्मात् सर्वप्रयत्नेन प्रबोधयितुमीश्वरीम् । ब्रह्मद्वारमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत् ।। 5 ।।

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Hatha Pradipika Ch. 3 [4-9]

महामुद्रा वर्णन   पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम् । प्रसारितं पादं कृत्वां कराभ्यां धारयेद् दृढम् ।। 10 ।। कण्ठे बन्धं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वत: । यथा दण्डहत: सर्पो दण्डाकार: प्रजायते ।। 11 ।। ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेत् । तदा सा मरणावस्था जायते द्विपुटाश्रया ।। 12 ।।   भावार्थ :- अपने बायें पैर की एड़ी से

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Hatha Pradipika Ch. 3 [10-13]

विद्वानों द्वारा महामुद्रा की प्रशंसा   महाक्लेशादयो दोषा: क्षीयन्ते मरणादय: । महामुद्रां च तेनैव वदन्ति विबुधोत्तमा: ।। 14 ।।   भावार्थ :- महामुद्रा करने से महक्लेश रूपी सभी दोष तथा मृत्यु रूपी दुःख भी नष्ट हो जाते हैं । इसीलिए विद्वानों में भी जो श्रेष्ठ हैं उन्होंने इस मुद्रा को महामुद्रा कहा है ।  

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Hatha Pradipika Ch. 3 [14-18]

महाबन्ध वर्णन   पाषि्र्ण वामस्य पादस्य योनिस्थाने नियोजयेत् । वामोरूपरि संस्थाप्य दक्षिणं चरणं तथा ।। 19 ।। पूरयित्वा ततो वायुं हृदये चिबुकं दृढम् । निष्पीड्य योनिमाकुंच्य मनोमध्ये नियोजयेत् ।। 20 ।।   भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी को सीवनी प्रदेश ( योनि स्थान ) पर अच्छे से टिका दें । दायें पैर को बायीं

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Hatha Pradipika Ch. 3 [19-24]

महावेध का महत्त्व   रूपलावण्य सम्पन्ना यथा स्त्री पुरुषं बिना । महामुद्रामहाबन्धौ निष्फलौ वेधवर्जितौ ।। 25 ।।   भावार्थ :- जिस प्रकार पुरुष के बिना सुन्दर स्त्री पूर्ण नहीं होती अर्थात उसका कोई महत्त्व नहीं होता । ठीक उसी प्रकार महावेध मुद्रा की साधना के बिना महामुद्रा व महाबन्ध मुद्रा की साधना पूर्ण नहीं होती

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Hatha Pradipika Ch. 3 [25-29]

एतत् त्रयं महागुह्यं जरामृत्युविनाशमम् । वह्निवृद्धिकरं चैव ह्यणिमादिगुणप्रदम् ।। 30 ।।   भावार्थ :- महाबन्ध, महामुद्रा और महावेध मुद्राओं को पूरी तरह से गुप्त रखना चाहिए । इनका अभ्यास बुढ़ापा व मृत्यु को दूर करता है । जठराग्नि को मजबूत करती हैं । साथ ही अणिमा आदि सिद्धियाँ प्रदान करती हैं ।   अष्टधा क्रियते

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Hatha Pradipika Ch. 3 [30-31]