द्वितीय उपदेश    कुम्भक, ( प्राणायाम ) व षट्कर्म वर्णन   अथासने दृढे योगी वशी हितमिताशन: । गुरूपदिष्टमार्गेण प्राणायामान् समभ्यसेत ।। 1 ।।   भावार्थ :- आसन का अभ्यास मजबूत हो जाने पर योगी को अपनी इन्द्रियों को वश में करके हितकारी व थोड़ी मात्रा वाला भोजन करना चाहिए । इसके बाद वह गुरु के

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Hatha Pradipika Ch. 2 [1-3]

मलाकुलासु नाड़ीषु मारुतो नैव मध्यग: । कथं स्यादुन्मनीभाव: कार्यसिद्धि: कथं भवेत् ।।   भावार्थ :- जब तक हमारी नाड़ियो में मल अर्थात अवशिष्ट पदार्थ भरे होंगे तब तक प्राणवायु मध्यमार्ग अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश नहीं कर सकती । और जब तक प्राणवायु सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश नहीं करेगी तब तक उन्मनी भाव ( समाधि

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Hatha Pradipika Ch. 2 [4-10]

प्रातर्मध्यन्दिने सायमर्धरात्रे च कुम्भकान् । शनैरशीति पर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत् ।। 11 ।।   भावार्थ :- सुबह, दिन के मध्य अर्थात दोहपर में, सायंकाल में तथा आधी रात को इस प्रकार साधक को चार बार में अस्सी ( 80 ) कुम्भकों का अभ्यास करना चाहिए ।   विशेष :- इस प्रकार यहाँ पर चार बार कुम्भक

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Hatha Pradipika Ch. 2 [11-16]

वायु कुपित होने से रोगों की उत्पत्ति   हिक्का श्वासश्च कासश्च शिर:कर्णाक्षिवेदना: । भवन्ति विविधा: रोगा: पवनस्य प्रकोपत: ।। 17 ।।   भावार्थ :- प्राणवायु के कुपित ( असन्तुलन ) होने से हिचकी, दमा, खाँसी, सिर, कान व आँख में पीड़ा तथा विभिन्न प्रकार के अन्य रोग भी होते हैं ।   युक्तं युक्तं त्यजेद्वायुं

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Hatha Pradipika Ch. 2 [17-20]

षट्कर्म का अभ्यास कौन करे ?  मेद:श्लेष्माधिक: पूर्वं षट्कर्माणि समाचरेत् । अन्यस्तु नाचरेत्तानि दोषाणां समभावत: ।। 21 ।।   भावार्थ :- जिन व्यक्तियों के शरीर में चर्बी अर्थात मोटापा और कफ ज्यादा है उनको पहले आगे कही जाने वाली छ: शुद्धि क्रियाओं का अच्छे से अभ्यास करना चाहिए । इसके अलावा जिन व्यक्तियों के वात,

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Hatha Pradipika Ch. 2 [21-23]

धौति क्रिया   चतुरङ्गुलविस्तारं हस्तपञ्चदशायतम् । गुरु प्रदिष्ट मार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्ग्रसेत् । पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौतिकर्म तत् ।।  24 ।।   भावार्थ :- धौति के लिए सबसे पहले चार अँगुल चौड़ा ( लगभग तीन से चार इंच ) और पन्द्रह (15) हाथ लम्बा ( लगभग बाईस फीट ) सूती वस्त्र लें । उसे पानी में

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Hatha Pradipika Ch. 2 [24-26]

बस्ति क्रिया   नाभिदध्नजले पायुन्यस्तनालोत्कटासन: । आधाराकुन्चनं कुर्यात् क्षालनं बस्तिकर्म तत् ।। 27 ।।    भावार्थ :- नाभि तक के गहरे पानी में उत्कटासन लगाकर गुदा में नाल अर्थात नली लगाकर अपने मूलाधार का संकोच करें ( अश्वनी मुद्रा का अभ्यास करें ) अर्थात गुदा से पानी को अन्दर की ओर खींचें और गुदा को

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Hatha Pradipika Ch. 2 [27-30]