कफ से उत्पन्न रोग व उसका समाधान   कफकोष्ठे यदा वायुर्ग्रन्थीभूत्वावतिष्ठते । हृत्का सहिक्काश्वासशिर: शूलादयो रुजा: ।। 13 ।। जायन्ते धातुवैषमयात्तदा कुर्यात् प्रतिक्रियाम् । सम्यक् भोजनमादायोपस्पृश्य तदनन्तरम् ।। 14 ।। कुम्भकं धारणं कुर्याद् द्वित्रिवारं विचक्षण: । एवं श्वासादयो रोगा: शाम्यन्ति कफपित्तजा: ।। 15 ।।   भावार्थ :- वायु के गलत दिशा में जाने से जब

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Hatha Pradipika Ch. 5 [13-24]

पित्त के असन्तुलन से होने वाले रोग   उन्मार्गं प्रस्थितो वायु: पित्तकोष्ठे यदा स्थित: । हृच्छूलं पार्श्वशूलं च पृष्ठशूलं च जायते ।। 7 ।।   भावार्थ :- जब प्राणवायु अपने मार्ग से हटकर पित्त प्रकोष्ठ में चली जाती है । तब हमारे हृदय प्रदेश, हृदय के साथ वाले हिस्से में व पीठ ( कमर )

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Hatha Pradipika Ch. 5 [7-12]

शरीर में वात,पित्त व कफ का स्थान    तलपादनाभिदेशे वातस्थान मुदीरितम् । आनाभेर्हृदयं यावत् पित्तकोष्ठं प्रकीर्तितम् ।। 3 ।। हृद्देशादूर्ध्वकायस्तु श्लेष्मधातुरिहोच्यते । इति त्रयाणां धातूनां स्वं स्वं स्थानमुदीरितम् ।। 4 ।।   भावार्थ :- पैर के तलवे से लेकर नाभि प्रदेश तक वायु ( वात ) का स्थान होता है । नाभि प्रदेश से लेकर

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Hatha Pradipika Ch. 5 [3-6]

पंचम उपदेश    अध्याय की भूमिका   हठप्रदीपिका के पाँचवें अध्याय के विषय में दो प्रकार के मत मिलते हैं । एक तो यह कि एक मत का मानना है कि हठप्रदीपिका का यह पाँचवा अध्याय योग का पाँचवा अंग है । दूसरा मत है कि यह पाँचवा अध्याय तो है लेकिन इसे हठ प्रदीपिका

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Hatha Pradipika Ch. 5 [1-2]

सर्वावस्थाविनिर्मुक्त: सर्वचिन्ताविवर्जित: । मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशय: ।। 107 ।।   भावार्थ :- जो योगी साधक सभी अवस्थाओं से मुक्त ( रहित ) होता है, सभी प्रकार की चिन्ताओं से जो दूर होता है । वह मरे हुए प्राणी की भाँति स्थिर रहता है । ऐसा योगी पूर्ण रूप से मुक्त होता है

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Hath Pradipika Ch. 4 [107-114]

तावदाकाशसङ्कल्पो यावच्छब्द: प्रवर्तते । नि:शब्दं तत् परं ब्रह्म परमात्मेति गीयते ।। 101 ।।   भावार्थ :- जहाँ तक आकाश की सीमा होती है वहीं तक नाद अर्थात् शब्द की सीमा होती है । इसका तात्पर्य यह है कि शब्द की उत्पत्ति आकाश नामक महाभूत से होती है । इसलिए जहाँ तक आकाश स्थित है वहीं

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Hatha Pradipika Ch. 4 [101-106]

नादोन्तरङ्गसारङ्गबन्धने वागुरायते । अन्तरङ्कुरङ्गस्य वधे व्याधायतेऽपि च ।। 94 ।।   भावार्थ :-  मृग ( हिरण ) रूपी चंचल मन की चंचलता को बान्धने के लिए नादानुसन्धान का अभ्यास रस्सी की तरह काम करता है । जिस प्रकार चंचल हिरण को रस्सी या जाल से बान्ध कर एक जगह स्थिर किया जा सकता है ।

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Hatha Pradipika Ch. 4 [94-100]